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वर्ष पूर्व की ही बात है, चामुण्डराय–के कटक से ही यह नाम निःसृत हुआ। 'गोमट' चामुण्डराय का ही प्यार का नाम था।
यह तो ग्राम की नाममाला हुई । अब अपनी बात करें। हम दोनों के प्राथमिक नाम हमारे आकार की अपेक्षा ही प्रचलित हुए। मैं चिक्कवेट्ट–छोटा पर्वत और वह दोड्डवेट्ट-बड़ा पर्वत । 'कटवप्र' मेरा संस्कृत सम्बोधन है और 'कलवप्पु' उसका कन्नड़ रूप। 'कटवप्र गिरि' और 'कटवप्र शैल' सम्बोधन भी मेरे लिए प्रचलित रहे हैं।
दिगम्बर आचार्य भद्रबाहु ने उत्तरापथ के भयंकर दुष्काल में मुझे अपना विश्रामस्थल बनाया। हादश सहस्र निर्ग्रन्थ ऋषियोंवाले उनके संघ के आगमन ने, मुझे अनेक नाम दिलाये हैं। __उन महातपस्वियों के सल्लेखना-मरण के समय ही साधु-समाधि के लिए मैं विख्यात हो गया। एक के उपरान्त एक, सहस्रों मुनियों ने तुम्हारे इसी चिक्कवेट्ट पर समाधि-मरण प्राप्त किया। 'स्वर्गारोहणभूमि' के नाम से लोग मुझे जानने लगे। समाधि-साधनास्थली होने से ही मेरा नाम 'कटवप्र' हुआ। कट या कल, काल अथवा मरण का द्योतक है। वप्र या गिरि पर्वत के लिए प्रयुक्त है। मेरा यह कटवप्र नाम किस प्रकार कदवप्र, कलवप्र और कलवप्प होता हुआ कन्नड़ का कलवप्पु हो गया यह तुम्हारे भाषाशास्त्री बतायेंगे।
भद्रबाहु स्वामी ऋषिराज थे। सम्राट चन्द्रगुप्त 'प्रभाचन्द्र स्वामी' बनकर राजर्षि हुए। इन ऋषियों की साधना-भूमि होने से ही मैं 'ऋषिगिरि' भी कहलाया।
'चन्द्रगिरि' नाम सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य की स्मृति में ही मुझे प्राप्त हुआ। दिगम्बर मुनि होकर वे यहाँ आये और मेरी ही गोद में उन्होंने पार्थिव शरीर का परिहार किया। तभी से मैं 'चन्द्रगिरि' हुआ। __इन तपःपूत महात्माओं की चरणरज पाने से, और अनेक देवायतनों जिनालयों को अपने मस्तक पर धारण करने से, मैं अनायास ही तीर्थ हो गया। इसलिए तीर्थगिरि' भी मेरा नाम हुआ। अपनी अर्थवत्ता के कारण ये सम्बोधन मुझे गौरव प्रदान करते रहे हैं।
मैंने कहा था न, बड़ी सार्थकता है हमारे नामों में।
गोमटेश-गाथा |७