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चर्म चक्षुओं से जो पाने का प्रयत्न किया, उसे मैं अपने अनन्त अन्तश्चक्षुओं के द्वारा, सहस्र वर्षों से पा रहा हूँ, सहस्र वर्षों तक पाऊँगा, मुझे अपने इस सौभाग्य पर गर्व है ।
आज तीसरा दिवस है मित्र ! देख रहा हूँ, बड़े मनोयोगपूर्वक प्रातः से संध्या तक तुम यहाँ गड़े - अनगड़े पाषाणखण्डों का अवलोकन करते हो । हर दिशा से कुछ पूछना - जानना चाहते हो, पर प्रश्नों का समाधान तुन्हें मिल नहीं पा रहा ।
नहीं बन्धु ! मेरे बोल सुनकर चौंको नहीं । अतीत के दर्शन की तुम्हारी जिज्ञासा जानकर ही मैं आज मुखर हो उठा हूँ । मैं चन्द्रगिरि पर्वत, जड़ हूँ तो क्या ? तुम्हारे अतीत का एकमात्र साक्षी मैं ही तो हूँ । अपने विगत को जितना तुम जानना चाहते हो, बताने के लिए उससे बहुत अधिक संचित है मेरे कोष में । अतीत को जानने की तुम्हारे भीतर जितनी जिज्ञासा है, उसे उद्घाटित करने की उत्सुकता, उससे कम नहीं है मेरे भीतर ।
तुम्हारी सभ्यता का क्रमबद्ध इतिहास, मेरे अंतस में सुरक्षित है । दीर्घकाल तक वहाँ वह सुरक्षित रहेगा । उस अतीत का लेखा-जोखा काष्ठ-फलकों पर, कागज पर, अथवा ताड़पत्रों पर अंकित होता, तो काल का परिणमन अब तक उसे मिटा गया होता। धातुओं पर वह अंकित होता है तो, सागर की आर्द्र वायु के झोके उसे कब का निःशेष कर चुके होते । परन्तु मैं ठहरा कठोर पाषाण । काल की कुदाल के कठोर आघात भी, लक्ष- लक्ष वर्षों तक मुझे विदीर्ण नहीं कर पाते । मेरे अंतस् के विशाल फलकों पर जो अंकित है, उस अतीत की शोध के लिए तुम्हें अन्यत्र कहीं भी जाना नहीं होगा । उसका विमोचन यहीं सम्भव है, अभी सम्भव है ।
तुम्हारे पूर्वज स्वयं तुम्हारे लिए अपना वृत्त छोड़ जाने में अत्यन्त उदासीन थे । बहुत कृपण थे । प्रायः उन्होंने अपनी गौरवगाथा के छन्द रचे ही नहीं | अपनी कृतियों का इतिहास कहीं अंकित किया ही नहीं । इधरउधर उनका छोड़ा हुआ, जो कुछ संकेत रूप में उपलब्ध है, उसे बटोर कर सुरक्षित करने की रुचि, उसके प्रयत्न, तुम्हारी पीढ़ी में बहुत विरल हैं । आकलन करनेवाली आँखें हों, तो दृश्यमान इतिहास सर्वत्र बिखरा पड़ा है। कोई पूछनेवाला भर हो, इतिहास के पात्र स्वतः बोलने लगते हैं । इसलिए तो आज तुम्हें पास पाकर मैं अनायास मुखर हो उठा हूँ ।
विस्मृति का विष, जब-जब तुम मानवों की चेतना को मूर्च्छाजाल आवेष्टित कर जाता है, तब-तब उस चेतना को निर्विष करने के लिए,
गोमटेश - गाथा / ३