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१. चन्द्रगिरि की आत्मकथा
गोमटेश के दर्शन से तृप्ति नहीं हुई ? अभी तुमने उन महाप्रभु का दर्शन किया ही कहाँ है प्रवासी !
जो प्रतिक्षण रूप बदलते हों, क्षण-क्षण जिनमें नवीनता का संचार होता हो, कैसे उनके दर्शन से किसी को तृप्ति मिल सकती है ?
फिर तुम्हें यहाँ आये अभी समय ही कितना हुआ है ?
मेरी ओर देखो, सहस्र वर्षों से निहार रहा हूँ उस भवनमोहिनी छवि को, पर लगता है दर्शन की पिपासा और-और बढ़ती ही जाती है। लोकोत्तर छवि का आकर्षण सदा ऐसा ही अनन्त तो रहा है। काल की सीमाएँ उसकी दर्शनाभिलाषा को क्या कभी तृप्त कर पायी हैं ? दृष्टि पड़ते ही भक्ति विह्वल हृदय स्वयं चितेरा बनकर, स्मृतिपटल पर उस छवि को, अमिट रंगों में अंकित कर लेता है।
सामने के पर्वत पर गोमटेश बाहुबली का यह रूप, ऐसा ही लोकोत्तर रूप है। संसार में बैर और प्रीति के जटिल बन्धनों से मुक्त होकर भी, वे यहाँ कोमल लता-वल्लरी से बँधे खड़े हैं। उत्तर में जन्म लेकर भी वे यहाँ दक्षिण में अवस्थित हैं, फिर भी उत्तर, निरन्तर उनकी दृष्टि में है।
यहाँ उनके चरणों में आते ही मनुष्य केवल मनुष्य रह जाता है। उनके साथ लगे हए सारे मानवकृत भेद यहाँ स्वतः समाप्त हो जाते हैं। गोमटेश के दर्शन के लिए जाति-पाँति का, ऊँच-नीच का, छोटे-बड़े का कोई बन्धन यहाँ कभी नहीं रहा। वे सबके भगवान् हैं। सब उनके भक्त हैं। यहाँ वे जन-मानस के सच्चे लोकदेवता हैं। किसी एक भू-भाग से बँधे नहीं हैं, इसलिए वे जगत के नाथ हैं। किसी एक के नहीं हैं, इसलिए इस विश्व में वे सबके हैं।