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41/श्री दान-प्रदीप
की पूजा करता था, क्योंकि पूजा कल्याणकारक मोक्षलक्ष्मी की विश्रामभूमि है। हमेशा दोनों समय हजारों राजाओं सहित वह आवश्यक क्रिया करता था, क्योंकि यह क्रिया अनेक पापों का हनन करनेवाली है। वह पर्वदिवसों पर तीन हजार राजाओं सहित पौषधव्रत ग्रहण करता था। सत्पुरुषों को पर्वकृत्य का त्याग करना उचित नहीं है। इस प्रकार धर्माराधन करने से उसका राज्य अत्यधिक वृद्धि को प्राप्त हुआ। धर्म वृष्टि के समान ऋद्धि रूपी लता की वृद्धि के लिए ही है। इन्द्र के सामानिक देवों की तरह हजार से भी ज्यादा मुकुटबद्ध राजा मेघनाद राजा की सेवा में रहते थे। वह 50 करोड़ ग्रामों के आधिपत्य को भोगता था। 32 हजार नगरों का वह स्वामी था। उसके पास 20 लाख हाथी, 20 लाख घोड़े व 20 लाख रथ थे। 40 करोड़ पदाति सेना का वह स्वामी था। इस प्रकार एक लाख वर्ष उसने निष्कंटक रूप से राज्य किया। जहां पुण्य रक्षा करनेवाला हो, वहां कौन विघ्न उपस्थित कर सकता
एक बार पार्श्वदेव नामक ज्ञानी गुरु महाराज वहां पधारे। राजा ने परिवार सहित जाकर उन्हें भक्तिपूर्वक वन्दन नमस्कार किया। उसके बाद उनकी अमृतमयी देशना सुनकर राजा हृष्ट-पुष्ट हुआ। निर्मल बुद्धि से युक्त उस राजा ने गुरुदेव से पूछा-“हे पूज्य! पूर्वजन्म में मैंने ऐसा कौनसा पुण्य किया था, जिससे इस प्रकार की राज्यलक्ष्मी और चिन्तामणि रत्न के समान मनोवांछित प्रदान करनेवाला रत्नकटौरा मुझे प्राप्त हुआ?"
तब मुनीश्वर ने कहा-"भरतक्षेत्र के भूषण रूप शौर्यपुर में भीम नामक एक वणिक रहता था। वह बोझा ढोने का कार्य करता था और कृपण पुरुषों का नायक था। गृहस्थों के सामान को इधर से उधर ढोते हुए वह कुछ-कुछ धनोपार्जन कर लेता था। मनुष्यों की उदरपूर्ति दुःखपूर्वक ही होती है। वह तुच्छबुद्धियुक्त था, अतः धनसंचय की लालसा से थोड़ा भोजन ही पकाता था। वह तेल और अनाज का भोजन दिन में एक बार ही करता था। उसकी कृपणता का ज्यादा वर्णन क्या किया जाय? संक्षेप में कहा जाय, तो एक-एक मोटे वस्त्र से वह पाँच–पाँच वर्ष तक निर्वाह कर लेता था। अपने कुटुम्ब का भी वह इसी तरह पोषण करता था। वह कृपण अपने स्वजनों के छोटे से छोटे उत्सव में भी नहीं जाता था। लोभी मनुष्य में उचितता कहां से हो? धनोपार्जन में व्यग्रता और खर्च के भय से वह कभी भी धर्म का श्रवण भी नहीं करता था, तो फिर धर्म के अनुष्ठान का तो कहना ही क्या? निरन्तर त्रास को प्राप्त वह कभी भी देव-मन्दिर या धर्म-मन्दिर में उसी प्रकार प्रवेश नहीं करता था, जैसे वन का पशु नगर में प्रवेश नहीं करता। केवल भारवहन आदि कुकर्म ही वह किया करता था। इस प्रकार करते हुए उसने एक लाख रूपयों का उपार्जन किया। अहो! लक्ष्मी प्राप्त करने की निपुणता को धिक्कार है!