Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 391
________________ 380/श्री दान-प्रदीप में मुनि समान बुद्धिवाले होते हैं। तो फिर मेरी लक्ष्मी के विषय में मानो अभिलाषा हो इस प्रकार से आप क्यों देख रहे हैं?" यह सुनकर उत्तम मुनि ने कहा-“हे श्रेष्ठी! तुम्हारी लक्ष्मी पर मेरी कोई स्पृहा नहीं है। पर तुम्हारी इस समृद्धि को देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। अतः मैं तुमसे पूछता हूं कि इस वैभव का विस्तार तुम्हें कहां से प्राप्त हुआ?" यह सुनकर मदन हृदय में शंकित हुआ। पर बाहर से हंसते हुए बोला-"यह स्वर्णासन आदि सामग्री तथा यह समस्त लक्ष्मी पिता की परम्परा से मुझे प्राप्त हुई है। पर आपने यह क्यों पूछा?" साधु ने स्मित हास्य के साथ कहा-“हे भद्र! क्यों झूठ बोलते हो? यह भोजन के पात्रादि सारी वस्तुएँ पूर्व में मेरे घर पर थीं। मेरा पुण्य क्षीण हो जाने के कारण ये सारी वस्तुएँ मेरे घर से चली गयीं। यह स्वर्णथाल तो जब जा रहा था, तो मैंने इसे पकड़ने का प्रयास भी किया था, पर इसका यह टुकड़ा टूटकर मेरे हाथ में रह गया और थाल चला गया। अतः कौतुक के कारण ही मैं तुम्हें पूछ रहा हूं तुम्हारे वैभव के लोभ से नहीं पूछ रहा हूं। हम मुनि तो बाह्य वैभव को सर्प के समान मानकर उससे डरते हैं।" यह कहकर मुनि ने थाल का वह टुकड़ा थाल के समीप रखा, तो मानो अत्यधिक समय के वियोग से दुःखी हुआ वह टुकड़ा तुरन्त थाल के साथ चिपक गया। यह देखकर मदन की शंका दूर हो गयी। मुनि को सत्यवादी जानकर उसने हर्षपूर्वक कहा-“एक दिन मैंने मेरे घर में स्वयं ही निधि के समूह को आया हुआ देखा। फिर एक दिन स्नान करने के समय यह स्वर्ण का बाजोट आदि सामग्री भी आकाश मार्ग से मेरे घर पर आ गयी। भोजन करते समय अकस्मात् भोजनपात्रों का समूह भी अपने आप मेरे घर पर आ गया। इस प्रकार यह समग्र लक्ष्मी पूर्वकृत सुकृत्य के कारण कहीं से भी आकर मुझे प्राप्त हुई है। प्राणियों को अपने भाग्य के योग से क्या अत्यन्त दुर्लम वस्तु भी सुलम नहीं होती? मैंने पहले आपके सामने असत्य कहा था। मेरे उस अपराध के लिए मुझे क्षमा कीजिए। हे भगवान! आप कौन हैं? किस ग्राम के रहनेवाले हैं? किसके पुत्र हैं?" तब मुनि ने अपने नगर आदि का वृत्तान्त उसको बताया। यह सुनकर मदन ने उसे अपनी पुत्री के पति के रूप में जाना। हर्ष और दुःख के साथ रोते हुए गद्गद स्वर में उसने कहा-“हे मुनि! आप मेरी पुत्री के स्वामी हैं। मेरी इस पुत्री को देखो। हे मुनि! यह घर आपका ही है। यह धन और यह निधि भी आपकी ही है। अधिक क्या कहूं? यह सर्व परिवार आपकी ही आज्ञा के आधीन है। अतः अभी तो अतुल्य सुख को प्रदान करनेवाले श्रेष्ठ भोगों को

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