Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 412
________________ 401 / श्री दान- प्रदीप किया । अनेक प्रकार की अद्भुत सिद्धियों को धारण करनेवाले वे विद्या से उन्मत्त हुए कुवादियों की गर्व रूपी अपस्मार व्याधि को दूर करने में धन्वन्तरि वैद्य के समान थे। उनके पाट को शोभा प्रदान करनेवाले श्रीसोमप्रभ नामक सूरि हुए । उनके कण्ठ में उज्ज्वल मुक्तावली की तरह निरन्तर शोभित सूत्र, अर्थ और सूत्रार्थ के द्वारा शोभित एकादशांगी ने उन्हें उस प्रकार से सौभाग्य प्राप्त करवाया था कि जिससे जगत में उत्तमता को धारण करनेवाली लक्ष्मी ने स्वयं ही उनका शीघ्रता से वरण किया था। उनके बाद उनके पाट पर एक अलंकार रूप श्रीसोम - तिलक नामक सूरि हुए। वे नये और विचित्र शास्त्रों की रचना करने में विधाता के समान थे, सिद्धान्त के ज्ञाताओं में अग्रसर थे और दुःखपूर्वक पराभव किया जा सके, ऐसे मोह रूपी कुराजा को जीतकर धैर्य के स्थान रूप उन्होंने तीन जगत में श्रीधर्मराजा का साम्राज्य एकछत्र से युक्त बनाया था। उनके पाट पर तेज रूपी लक्ष्मी के स्थान रूप, तपागच्छ को प्रकाशित करने में तत्पर और कल्याण रूपी मार्ग के द्वारा दैदीप्यमान श्री देवसुन्दर नामक गुरु दीप के समान शोभित हुए । उन्होंने लक्ष्मी के स्थान रूप जैनधर्म को इस कलियुग रूपी रात्रि में उसी तरह प्रकाशित किया कि जिससे मन्ददृष्टि (मिथ्यादृष्टि) से युक्त जनों को भी स्पष्ट रूप से सद्दर्शन की प्राप्ति होती थी। उनके पाट रूपी उदयाचल पर्वत पर सूर्य के समान श्रीसोमसुन्दर गुरु नामक प्रभु जयवन्त वर्तित हैं। तीन जगत में श्रेष्ठ गुणों से युक्त उनके द्वारा जिनशासन गौतमस्वामी के समान दैदीप्यमान वर्तित हैं। उनकी कीर्ति के द्वारा पृथ्वीतल को धोनेवाले ये प्रख्यात पाँच शिष्य जिनमत की अत्यन्त उन्नति का विस्तार कर रहे हैं। उनमें प्रथम श्रीमुनिसुन्दर नामक गुरु हैं, जिनकी महिमा पृथ्वी पर अत्यन्त विस्तृत है । जगत में हिंसा का निवारण करने से वे भद्रबाहु स्वामी की तरह शोभित हैं। दूसरे गुरुराज श्रीजयचन्द्र नामक मुनीश्वर जयवन्त वर्तित हैं। उन्होंने अपनी बुद्धि के अतिशय की समृद्धि के द्वारा बृहस्पति का भी अत्यन्त तिरस्कार किया है। तीसरे सूरीश्वर श्री भुवनसुन्दर के नाम से प्रसिद्ध हैं। उनके सौभाग्यादि गुणों के कारण उन्होंने अपना नाम सार्थक कर लिया है। चौथे श्रेष्ठ गुणोंवाले श्रीजिनसुन्दर नामक सूरीश्वर जयवन्त विचरते हैं । वे निरन्तर मुक्तावली के समान एकादशांगी को शोभित करते हैं । चन्द्र की अत्यन्त निर्मल कीर्ति के द्वारा प्रसिद्ध श्रीजिनकीर्ति नामक मुनि हैं, जो कि पाँचवें हैं । पर वे गुणों के द्वारा गिनती के पात्र नहीं हैं अर्थात् उनके गुणों की गिनती ही नहीं है । पाँचों में से चौथे श्रीजिनसुन्दर सूरि, जो कि विद्या के निधान हैं, उनके शिष्य श्री सोमसुन्दर गुरु नामक सूरि, जो कि गच्छ के नायक हैं, उनकी आज्ञा में वर्तित होते अल्पमतियुक्त चारित्ररत्न | गणि ने इस दानप्रदीप नामक ग्रन्थ को स्व और पर के अर्थ की सिद्धि के लिए रचा है। विक्रम संवत् 1499 में चित्रकूट नामक गढ़ (चित्तौड़गढ़) इस ग्रंथ को समाप्त किया है ।

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