________________
400/श्री दान-प्रदीप
इस प्रकार नंद और धनद-इन दोनों भाइयों के दानधर्म संबंधी गर्व और अगर्व से उत्पन्न हुए शुभ-अशुभ फलयुक्त चरित्र को कर्णगोचर करके हे भव्यजनों! दानधर्म की विधि के द्वारा हृदय को साफ करके दो प्रकार के गर्व का त्याग करो, जिससे दानधर्म का फल शीघ्रता से प्राप्त हो सके।" ___ इस प्रकार जो पुरुष पाँच दोषरहित और पाँच गुणसहित व सम्पूर्ण फल को प्रदान करनेवाले श्रीदानधर्म की आराधना करता है, वह मनुष्य और देव के वैभव से युक्त अत्यन्त अद्भुत सम्पदा को भोगकर अन्त में समग्र कर्मों का नाश करके शीघ्रता के साथ शाश्वत मोक्ष्लक्ष्मी का वरण करता है।
|| इति द्वादश प्रकाश।।
अथ प्रशस्ति 0
श्रीमहावीरस्वामी के सर्व गणधरों में प्रथम गणधर श्रीगौतम स्वामी और आगम रूपी गंगा नदी की उत्पत्ति में हिमालय पर्वत के समान पंचम गणधर श्रीसुधर्मास्वामी आप सभी की सिद्धि के लिए हों। उनके पाट पर समता रूपी उद्यान में जल के समान श्रीजम्बूस्वामी शोभित थे। उनके बाद अनुक्रम से गौरव के द्वारा मेरुपर्वत का भी तिरस्कार करनेवाले श्रीवजस्वामी नामक गुरु हुए। उनकी शाखा के तिलक के समान और निर्मल संवेग के रंग द्वारा विकास को प्राप्त श्रीजगच्चंद्र नामक प्रसिद्ध सूरि ने जिनमत को अत्यन्त शोभा प्राप्त करवायी। उन्होंने निर्मल, दुस्तप और जगत को आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले उस-उस तप के द्वारा श्रीचंद्र नामक गच्छ के स्थान पर राजा द्वारा प्रदत्त तपगच्छ नामक प्रसिद्धि का पृथ्वी पर विस्तार किया। उनके पाट रूपी उदयाचल पर्वत को सूर्य की तरह विशाल तेज से विस्तृत बनाते हुए श्रीमान् देवेन्द्रसूरि ने शोभित किया। वे प्रत्येक दिशा में 'कमलोल्लास करने में समर्थ थे। किरणों के समूह की तरह दैदीप्यमान और चारों तरफ सुन्दर प्रकाशयुक्त मोक्षपुरी के मार्ग को दीपता हुआ उनके ग्रंथों का समूह आज तक आश्चर्य उत्पन्न करता है। उसके बाद उनके पाट पर आये हुए श्रीधर्मघोष नामक प्रभु ने जैनधर्म को उन्नति प्राप्त करवायी। उन्होंने गोमुख नामक देव को समकित प्राप्त करवाकर शत्रुजय तीर्थ की रक्षा के लिए स्थापित
1. सूर्य कमलों का विकास करने में और सूरि कमला का अर्थात् ज्ञानलक्ष्मी का विकास करने में समर्थ थे।