Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 398
________________ 387/श्री दान-प्रदीप तुम्हारे समागम से मुझे अद्वितीय शोक व हर्ष एक साथ प्राप्त हुए हैं। इन चार बहुओं और इस सर्व लक्ष्मी का अन्य कोई आश्रय न होने से महासागर को नदियों की तरह यह तुम्हें प्राप्त हुई है। अतः अतुल लावण्य के अतिशय का स्पर्श करनेवाली इन बहुओं और इस लक्ष्मी के भोग द्वारा तूं सौभाग्यशाली बन।" इस प्रकार उस वृद्धा के वचनों की विचित्रता का श्रवण करके कृतपुण्य के चित्त की वृत्ति अत्यन्त विस्मय के कारण विकस्वर हुई। वह विचार करने लगा-"यह अपार लक्ष्मी और ये स्त्रियाँ मुझे प्रत्यक्ष रूप से स्वयंवर के रूप में प्राप्त हुई हैं। तो फिर मुझे आकाश-पुष्प की तरह असत् कल्पना क्यों करनी चाहिए?" ऐसा विचार करके वह बोला-"हे माता! मुझे कुछ भी याद नहीं है। आप वृद्ध हो, अतः इस प्रकार इतिहास बताने में समर्थ हो। मैं तो माता की आज्ञा को मस्तक पर मुकुट के समान मानता हूं, क्योंकि कौनसा विवेकी पुरुष कामधेनु के समान गुरुजनों की आज्ञा का तिरस्कार करेगा?" तब वे चारों बहुएँ भी उसके गुणों से आनन्दित होती हुई अपने विवाहित भर्तार की तरह उसके साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करने लगीं। अनुक्रम से उन चारों स्त्रियों के चतुर और आश्चर्यकारक मनोहर गुणों के समूहवाले चार पुत्र उत्पन्न हुए। वहां रहते हुए और सुखों का उपभोग करते हुए कृतपुण्य के बारह वर्ष बारह घड़ी के समान व्यतीत हो गये। सुख में मग्न प्राणी जाते हुए काल को नहीं जान पाते। उसके बाद एक दिन स्वार्थ की सिद्धि हो जाने से मन में कृतार्थता को मानती हुई उस वृद्धा ने अपने वश में रहनेवाली उन चारों बहुओं से कहा-"तुम्हें पुत्र की प्राप्ति हो गयी है, अतः अब इस पुरुष का त्याग कर दो, क्योंकि फलों का समूह ले लेने के पश्चात् आम्रवृक्ष पर भी आदर नहीं रहता।" यह सुनकर बहुओं ने कहा-“हे माता! मनोहर गुणों का स्थान रूप पति हमको आपने ही दिया है। हमने भी उसके साथ भोग भोगे हैं। अतः अब उसका त्याग करना योग्य नहीं है।" यह सुनकर क्रोधपूर्वक भृकुटि को टेढ़ी करते हुए वृद्धा ने कहा-“हे पुत्रियों! मेरी आज्ञा का भंग आज नये रूप में ही देखने में आया है। हमारा धन राजा ग्रहण कर लेगा-इसी भय से सन्तान उत्पन्न करवाने के लिए ही मैंने इस अनजान पुरुष को लाकर तुम्हें सौंपा था। अब लक्ष्मी का रक्षण करने में पहरेदारों के समान पुत्र तुम्हें उत्पन्न हो गये हैं। जिसमें से सारभूत रस निकाल लिया हो, ऐसे गन्ने के सांठे के समान पुरुष से अब क्या प्रयोजन?"

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