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388/श्री दान-प्रदीप
इस प्रकार वृद्धा के कोप व आग्रह जानकर बहुएँ मौन हो गयीं। वृद्धजनों की आज्ञा अयोग्य हो, तब विवेकीजनों के लिए मौन ही शरण रूप होती है।
एक बार वृद्धा के कपट को जानने के बाद जब बहुओं को लगा कि वृद्धा इस गुणवान व्यक्ति को धोखा देनेवाली है, तब बहुओं ने चार मनोहर लड्डू बनाकर उनके भीतर रत्न डालकर उन्हें वस्त्र के छोर पर बांध कर तकिये के नीचे रख दिया। फिर उसी रात्रि में सुखपूर्वक निद्रा में मग्न कृतपुण्य को पलंगसहित उठवाकर दासियों के द्वारा उस वृद्धा ने उसी देवकुल में रखवा दिया, जहां से उसे उठवाकर लायी थी। उस समय वही सार्थ पूर्व दिशा से वापस आकर उसी स्थान पर उतरा। भवितव्यता दूर रही हुई वस्तु को भी समीप ला देती है। वहां निद्रा का क्षय होने पर कृतपुण्य जागृत हुआ। वृद्धा की इस कुचेष्टा को जानकर और स्वयं कुछ भी धनोपार्जन न कर सकने के कारण बार-बार अपनी आत्मा को धिक्कारने लगा।
उधर पूर्व दिशा से साथ के आगमन का समाचार सुनकर हर्षित होते हुए उसकी पूर्व पत्नी ने अपने पति की खबर लेने के लिए एक पुरुष को सार्थ में भेजा। वह खोजते-खोजते कृतपुण्य के पास आया। उसने उससे पूछा-“हे भद्र! क्या घर पर मेरी प्रिया कुशल है? उस समय वह गर्भवती थी, अतः उसके क्या हुआ? तब उस पुरुष ने उसे प्रसन्नता के साथ पुत्रजन्म के बारे में बताया। फिर उसने जैसे ही बिस्तर को उठाया, तकिये के नीचे से लड्डू निकले। उन्हीं लड्डुओं को लेकर द्रव्योपार्जन न कर पाने के दुःख से दुःखित होते हुए कृतपुण्य उसी पुरुष के साथ निराश कदमों से अपने घर आया। उसे आता देखकर उसकी प्रिया हर्षित होती हुई खड़ी हुई। उसका आगमन-सत्कार किया। कुलीन स्त्रियाँ सम्पत्ति और विपत्ति में पति के प्रति समान आचरण से युक्त होती हैं। फिर वह अपने स्वामी की अभ्यंगन आदि विधि करने लगी। उसी समय उसका पुत्र पाठशाला से भोजन करने के लिए घर आया। तब उसने उन लड्डुओं में से एक लड्डु उसे खाने के लिए दिया। वह भी उसें खाता हुआ अपने अन्य साथियों के पास गया। दांतों से न टूटनेवाला एक दैदीप्यमान रत्न उस लड्डू में से निकला। उसने उस रत्न को हाथ में लिया और उत्कण्ठापूर्वक अन्य साथियों से पूछने लगा-"यह वस्तु क्या है?"
सभी इसी प्रकार कहने लगे और एक हाथ से दूसरे हाथ में उस रत्न को लेने लगे। इस तरह कंकर की तरह वह मणि अनेक हाथों में फिरने लगी। फिर वह बालक उस मणि को लेकर किसी कन्दोई की दुकान में खाने की वस्तु लेने पहुँचा। वहां वह मणि उसके हाथ से छिटककर जल के पात्र में गिर गयी। तुरन्त ही वह जल खल मनुष्य की मैत्री की तरह दो भागों में विभक्त हो गया। यह देखकर कन्दोई ने मन में निश्चय किया कि यह जलकान्त मणि है। उसने मन में धूर्तता धारण करते हुए बालक से कहा-"यह पत्थर मुझे दे दे। मैं तुझे खाने के लिए बढ़िया वस्तु दूंगा।"