Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 397
________________ 386/ श्री दान-प्रदीप भूमि में वृष्टि की तरह मुझ में शास्त्र की दृष्टि निष्फल हुई है, क्योंकि मैंने माता-पिता को अगाध दुःख के समुद्र में डाला और बाप-दादा का इकट्ठा किया हुआ धन नष्ट कर दिया। हे कमल समान नेत्रोंवाली! तुमने भी जो किया है, उसे शब्दों के द्वारा प्रकट करने की शक्ति मुझमें नहीं है। अतः मैं ही सर्व दोषों का स्थान हूं और तूं ही सर्व गुणलक्ष्मी का स्थान है। अब धन के अभाव में दुर्दशा को प्राप्त मैं क्या करूं? क्योंकि वैभवरहित पुरुष अनेक मनुष्यों के दास के समान होता है। हे मधुर वचनोंवाली! अगर कुछ धन हो, तो मैं व्यापार करूं।" यह सुनकर विशेष बुद्धियुक्त वह हर्षित होकर बोली-“मेरे सारे अलंकार रूपी यह धन आपका ही है। उसके उपरान्त हजार स्वर्ण मोहरें भी हैं। इन्हें ग्रहण करके मुझ पर अनुग्रह कीजिए।" यह सुनकर कृतपुण्य अत्यन्त प्रसन्न हुआ और व्यापार करने की इच्छा से उस धन को ग्रहण किया। उन्हीं दिनों पूर्व दिशा से चला हुआ कोई सार्थ उसी नगर में आया। यह सुनकर कृतपुण्य उस सार्थ की तरफ गया। उसके पीछे-पीछे उसकी प्रिया उसे पहुँचाने के लिए गयी। उसे मधुर वाणी के द्वारा प्रसन्न करके उसे वापस भेजा और नगर के बाहर किसी देवकुल में निद्रारहित सो गया। उसी अवसर पर उसी नगर की रहनेवाली कोई धनाढ्य वृद्धा थी। उसके पुत्र के कोई सन्तान नहीं थी। समुद्र में उत्पात के कारण वाहन टूट जाने से उसका पुत्र मरण को प्राप्त हो गया था। अतः उसका धन राजकुल में न चला जाय, इस डर से उस वृद्धा ने अपने पुत्र के मरण की बात को गुप्त रखा था। उस समय वह वृद्धा रात्रि में सार्थ में आयी थी। वहां कृतपुण्य के रूप को देखकर आश्चर्यचकित होते हुए उसे नींद में सोया हुआ समझकर अपने चाकरों द्वारा उठवाकर अपने घर ले गयी। मार्ग में जाते हुए कृतपुण्य हृदय में विस्मित होकर विचार करने लगा-"यह वृद्धा कौन है? यह मुझे कहां और क्यों ले जा रही है?" इस प्रकार विचार करते हुए वह उसके घर पर पहुँच गया। फिर वह धूर्त और निर्लज्ज वृद्धा अपनी चारों बहुओं के देखते ही कृतपुण्य के गले लगकर रोती-रोती बोली-"हा! स्वच्छ प्रेमयुक्त हे पुत्र! अपनी माता को छोड़कर तूं इतने दिन तक कहां गया था? कहां रहा? हे पुत्र! जब तेरा जन्म हुआ, तभी किसी पापी ने तेरा हरण कर लिया था। मैं तेरी माता हूं-यह तूं जान ले। इसमें किसी प्रकार का संशय मत रखना। हे प्यारे पुत्र! तूं अर्थ और नाम से भी श्रीनिवास नामक मेरा पुत्र है। तेरे वियोग रूपी दावानल ने चिरकाल तक मुझे संतप्त किया है। आज ही तुम्हारा समागम होगा-ऐसा निमित्तज्ञों ने मुझसे कहा था। रात्रि में स्वप्न में फलों से लदा हुआ कल्पवृक्ष भी मैंने देखा। इस सार्थ में खोजते हुए मुझे दुर्लभ तुम प्राप्त हुए हो। मेरे जागृत भाग्य के द्वारा आज मेरे मनोरथ फलीभूत हुए हैं। तुम्हारे बड़े भाई के मरण व

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