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393 / श्री दान- प्रदीप
विमुख एवं धनोपार्जन करने में ही तत्पर उस सेठ ने मम्मण वणिक की तरह कितना ही काल व्यतीत किया ।
एक बार उस धनसार ने अपने हाथ से दाबी हुई अपनी सम्पत्ति को भूमि खोदकर देखा, तो उसमें अंगारे दिखायी दिये । अतः उसका मुख ग्लानियुक्त हो गया । वह अत्यन्त खेदखिन्न हुआ। फिर भयभीत होते हुए उसने अपने अन्य निधान भी सम्भाले, तो किसी निधान में बिच्छु, किसी में सर्प, किसी में मकोड़े देखे । यह देखकर आकुल-व्याकुल होते हुए वह शोकमग्न हो गया। तभी किसी ने आकर उससे कहा- "हे सेठ ! खल पुरुष की मित्रता की तरह आपके सभी वाहन जलमग्न हो गये।"
तभी किसी अन्य ने आकर कहा - "आपका सारा माल मार्ग में लुटेरों ने लूट लिया । "
इसी प्रकार कहीं अग्नि, कहीं चोर, कहीं वाणोतर, तो कहीं खल पुरुषों ने भिन्न-भिन्न निमित्तों के द्वारा उसका सारा धन नाश को प्राप्त हो गया। इन सब उपद्रवों के कारण उसका मन दीन हो गया। उसके मन में जरा भी विश्रान्ति नहीं हुई। मानो भूत से आविष्ट हुआ हो - इस प्रकार से पूरे नगर में इधर-उधर भटकने लगा ।
फिर एक दिन उसने विचार किया - " अभी तक मेरे शरीर में बल है और कहीं-कहीं कोठार में अखण्ड माल भी भरा हुआ है । अतः देशान्तर में जाकर द्रव्योपार्जन करूं । स्वजनादि से अपमानित होकर यहां रहने की अपेक्षा अन्य स्थानों का आश्रय करना कल्याणकारी है, क्योंकि पूरे नगर में मेरी कृपणता से उत्पन्न अपवाद फैला हुआ है। उसमें भी धन क्षीण हो जाने के कारण मैं सभी के हास्य का पात्र भी बन गया हूं।"
इस प्रकार मन में विचार करके दस लाख द्रव्य लेकर वाहन में चढ़कर वह लोभी श्रेष्ठी समुद्र में चला। दूर मार्ग का उल्लंघन करने के बाद यकायक आकाश बादलों के द्वारा व्याप्त हो गया । प्रत्येक दिशा में तीक्ष्ण भालों के समान बिजली चमकने लगी। मानो परस्पर स्पर्द्धा कर रहे हों - इस प्रकार मेघ और समुद्र गरजने लगे। वाहन में बैठे हुए मनुष्यों का हृदय वाहन के साथ ही कम्पित होने लगा। यह देखकर श्रेष्ठी आदि लोग इस प्रकार सतुति करने लगे - " हे दैव! हमारी रक्षा करो।"
पर उनके पुण्य के साथ ही उनका वाहन भी टूट गया। उस समय एक पाटिया हाथ लग जाने से वह सेठ समुद्र को तैरकर किनारे पर पहुँच गया। किनारे की शीतल वायु के द्वारा मानो उसे आश्वासन मिला। अत्यन्त खेदित होते हुए वह विचार करने लगा - "हा ! हा! मुझ मूढबुद्धि ने हजारों क्लेशों के द्वारा धन का उपार्जन किया और लाखों प्रयत्नों के द्वारा उसका अच्छी तरह रक्षण किया। तो भी वह क्षणभर में कैसे नष्ट हो गया? मैंने सुपात्रदान भी नहीं किया, स्वयं भी