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394/श्री दान-प्रदीप
उस धन को नहीं भोगा, अन्य के उपकार में भी उसका उपयोग नहीं किया। अतः मेरा वह धन शल्य की तरह मेरे मन को पीड़ित करता है। दैव को इतने से भी तृप्ति नहीं हुई। उसने कुटुम्ब से भी मेरा विरह करवा दिया।"
इस प्रकार विचार करके मन में खेदखिन्न होते हुए वह किनारे के वन में घूमने लगा। तभी उसने एक मुनि को देखा। उन्हें उसी समय केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। अतः देव उनकी महिमा कर रहे थे। वे स्वर्णकमल पर विराज रहे थे। यह देखकर मन में हर्षित होते हुए उनके पास जाकर उन श्रेष्ठ मुनि को नमन किया और उनके पास बैठ गया। मुनि ने भी उन्हें धर्मोपदेश दिया, जिसे सुनकर उसका मन अत्यन्त स्वस्थ बना। फिर उसने मुनि से पूछा-"हे भगवान! मैं जन्म से कृपण किस कारण से बना? मेरा इतना अधिक वैभव यकायक कैसे क्षीण हो गया?"
तब गुरुदेव ने कहा-"धातकीखण्ड के अलंकार रूप भरत नामक क्षेत्र में समृद्धिवान श्रेष्ठी के दो पुत्र धनद व नन्द थे। उनके पिता परलोक सिधारे, तब बड़े भाई ने घर का भार सम्भाला। वह उदार मनवाला था। उसकी बुद्धि हंस की तरह जिनधर्म रूपी कमल में क्रीड़ा करती थी। वह निदान रहित होकर निरन्तर दीनादि को अपना धन प्रदान करता था। मेघ की तरह महापुरुषों की सम्पत्ति अन्यों के उपकार के लिए ही होती है। उसके हस्त रूपी मेघ सुपात्रादि रूपी खेत पर दान रूपी जल की बरसात इस प्रकार करते थे कि उसकी कीर्ति रूपी नदी का पूर सर्व दिशाओं में फैल गया था।
एक बार उस पर ईर्ष्या रखने से अंधा हुआ और तुच्छ मनवाला उसका छोटा भाई नन्द विचार करने लगा-"धनद की कीर्ति दान के कारण सर्व ओर प्रसरित हो गयी है। पर भाग्यहीन की तरह मेरा नाम भी कोई नहीं जानते। पिता के द्वारा उपार्जित धन तो हम दोनों के भोग के लिए है। उस धन का यह अकेले ही कैसे नाश कर सकता है? थोड़े ही समय में तो यह समग्र वैभव को खत्म कर देगा। अतः मुझे अपने भाग का वैभव इससे मांग लेना चाहिए।"
इस प्रकार विचार करके दुर्बुद्धियों में मुकुट के समान नन्द धनद से जुदा हो गया । क्या कहीं भी आम्र और कैर के वृक्ष का साथ-साथ निवास योग्य है?
उसके बाद धनद के साथ स्पर्धा करते हुए उसने श्रद्धारहित होते हुए भी गर्व के द्वारा उद्धत चित्त से दीनादि को दान देना शुरु किया। पर मूढ़मतियुक्त उसमें विशेष ज्ञान न होने से तथा स्वभाव से कृपण होने के कारण दान देने के अवसर पर स्थान-स्थान पर उचितता के विपरीत आचरण करने लगा। अतः दान देने के उपरान्त भी उसकी लोक में उस प्रकार की प्रतिष्ठा न हो पायी। यथार्थ कारण के अभाव में यथार्थ कार्य की सिद्धि कभी हो नहीं सकती।