Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 396
________________ 385/श्री दान-प्रदीप क्योंकि अभी-अभी उसकी स्त्री ने अपने शरीर के सारे अलंकार उतारकर भेजे हैं। अतः हे पुत्री! तूं इसका अब त्याग कर दे, क्योंकि धन पर ही एकमात्र दृष्टि रखनेवाली वेश्याएँ रूप या विद्या की अपेक्षा नहीं रखती।" इस प्रकार न सुनने योग्य कानों में करवत के समान लगनेवाले अक्का के वचनों को सुनकर अनंगसेना ने क्रोधित होते हुए चतुर वाणी के द्वारा कहा-“हे माता! आज से तुम मेरी माँ नहीं हो, क्योंकि कर्ण में शूल के समान ऐसे प्रतिकूल वचन तुमने कहे हैं। इसने बारह वर्ष तक हमे धनाढ्य करनेवाला करोड़ से भी ज्यादा धन प्रदान किया है। क्या तेरी उससे भी तृप्ति नहीं हुई? इसके गुणों ने तो मेरे चित्त को बांध लिया है। इसके बिना मैं एक पग भी अन्यत्र नहीं रख सकती।" इस प्रकार उसके अत्यन्त दृढ़ आग्रह का निश्चय जानकर अक्का का मुख उतर गया। मानो उसका सर्वस्व चला गया इस प्रकार वह निस्तेज हो गयी। फिर अक्का की प्रेरणा से दासियाँ बार-बार कृतपुण्य का अपमान करने लगीं, क्योंकि सूर्य जब किरणों से रहित होता है, तब कौन उसे अर्घ्य देता है? कृतपुण्य अपने अपमान के कारणों पर विचार करने लगा। तब उसे एहसास हुआ-"यह अपमान करानेवाली अक्का ही है।" यह जानकर वह अग्नि की तरह पश्चात्ताप के द्वारा अत्यन्त संतप्त हुआ। कामेदव से उन्मत्त हुए पुरुष को संताप होना दुर्लभ नहीं है। फिर वह बिना किसी को कुछ कहे अपने घर आ गया। मानयुक्त पुरुष कुत्तों की तरह अन्य की अवज्ञा सहन नहीं करते। घर के भीतर जाते हुए उसने अपनी प्रिया को देखा। उसने अपने हाथ पर गण्डस्थल रखा हुआ था, मलिन वस्त्र धारण किये हुए थे, हिम के द्वारा मुरझायी हुई कमलिनी की तरह वह ग्लान हो गयी थी। न देख सकने योग्य घर की दो प्रकार की दुर्दशा देखकर धैर्यशाली होने के बावजूद भी उसकी आँखों में आँसू आ गये। उसे दूर से आते हुए देखकर उसकी प्रिया का मुख विकस्वर हो गया। हर्ष से उसका पूरा शरीर रोमांचित हो गया। फिर वह विचार करने लगी-"क्या मेरे सद्भाग्य से ये मेरे स्वामी ही आ रहे हैं? अथवा तो मेरा ऐसा भाग्य कहां?" ____क्षणभर निश्चय करके पहले तो उत्सुकता सहित मन के द्वारा, फिर दृष्टि से और फिर शरीर के द्वारा अपने पति के सामने खड़ी होकर चली। उसने अपने पति की ऐसी अमृतोपम सेवा-आगवानी की कि उसका अपमान रूपी अग्नि से संतप्त हृदय शान्त हो गया। फिर रात्रि के समय उस कृतपुण्य ने उस विनयवती पत्नी को भोगमातृका का अभ्यास करवाया और शुद्ध बुद्धियुक्त उस स्त्री ने अंतःकरण में प्रबोध की तरह गर्भरत्न को धारण किया। अगले दिन उसने प्रिया से कहा-“मेरे जैसा मूढ़ इस जगत में अन्य कोई नहीं है। ऊसर

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