Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 394
________________ 383/श्री दान-प्रदीप श्रावक धर्म अंगीकार करके वह अपने घर गया। शुद्ध आशययुक्त होकर उसने सात क्षेत्रों में अपने धन का व्यय किया और लक्ष्मी को सफल बनाया। उसके बाद सुधन मुनि के पास चारित्र अंगीकार करके बुद्धिमान मदन मुनि ने उसका निरतिचार पालन किया। निर्मल चारित्र का पालन करने से वे दोनों स्वर्ग में गये। वहां से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर वे दोनों मोक्ष को प्राप्त करेंगे। अतः पात्रदान करने में थोड़ा भी विलम्ब नहीं करना चाहिए। उससे मनोहर अर्थ की सिद्धि होती है, क्योंकि विलम्ब करने पर दातार के भावों में हीनता आ जाती है और भावहीनता से पुण्य खण्डित हो जाता है। पुण्य का उत्कर्ष और अपकर्ष एकमात्र भाव के आधीन ही है। पुण्य खण्डित होने से दातार उसके अनुसार ही परभव में कृतपुण्य की तरह खण्डित सम्पत्ति को प्राप्त होता है। उस कृतपुण्य की कथा इस प्रकार है :___ कल्याण की लक्ष्मी के निवास के लिए घर रूप राजगृह नामक नगर था। उसमें अनेक गुणों की श्रेणि से शोभित श्रेणिक नामक राजा था। उसके अभय नामक मंत्री था। उसी नगर में अत्यधिक वैभव से युक्त धनावह नामक श्रेष्ठी था। उसके पुण्य कर्म में तत्पर भद्रा नामक भार्या थी। उसके कृतपुण्य नामक पुत्र था। वह उदयप्राप्त सूर्य की तरह तेजस्वी, दूज के चन्द्र की तरह दर्शनीय और अद्भुत सौभाग्यलक्ष्मी के विश्राम के स्थान के समान शोभित होता था। उसके दर्शन लोगों के लिए प्रीतिकारक थे। दूज के चन्द्र की तरह निरन्तर वृद्धि को प्राप्त करते हुए वह समग्र कलाओं के द्वारा सम्पूर्ण बन गया। युवावस्था प्राप्त होने पर पिता की आज्ञा से कुलवान, पवित्र लावण्यवाली और कृतपुण्य को प्राप्त करने से अपने को धन्य मानती हुई एक कन्या के साथ उसने विवाह किया। पर वह साधुओं की संगति के कारण भोगों में आसक्त नहीं हुआ। प्रायः करके जल और जीव को जैसा संयोग मिलता है, वे वैसा ही फल प्रदान करते हैं। अतः उसमें भोगासक्ति पैदा करने के लिए श्रेष्ठी ने उसे जुआरियों की संगति करवायी। तत्त्वतः हितकारक माता- पिता का मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। वैसे मित्रों की संगति के कारण वह मर्यादा रहित होकर इच्छानुसार वेश्याओं के साथ रमण करते हुए भोगासक्त बन गया। मालती के पुष्प में भ्रमरों की तरह वह अनंगसेना नामक वेश्या में अत्यधिक आसक्त बन गया। उस वेश्या ने भी उसे स्नान, मान, भोजनादि द्वारा इस तरह वश में किया कि जिससे कामातुर बनकर वह माता-पिता तक का भी स्मरण नहीं करता था। उस वेश्या की अक्का ने भी कपट रूपी रेंट के द्वारा पाताल में भी रहे हुए उसके धन रूपी जल को निरन्तर करोड़ों मार्गों द्वारा खींचने का प्रयत्न किया। कृतपुण्य के पिता ने भी पुत्रस्नेह के कारण उसकी इच्छानुसार धन दासी के हाथ हमेशा भिजवाया। अहो! मनुष्यों की मोहान्धता आश्चर्यकारक है!

Loading...

Page Navigation
1 ... 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416