Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 393
________________ 382/श्री दान-प्रदीप दानादि में धन के व्यय के लिए बार-बार पश्चात्ताप करने लगा-"हा! हा! दूसरे मनुष्यों के द्वारा ठगे जाने से मैंने व्यर्थ ही कितने धन का व्यय कर दिया?" इस प्रकार के विचार के द्वारा पश्चात्ताप करने से उसने अपने पुण्य की हानि की। चारों तरफ से सूर्य का ताप पड़ने पर क्या जलाशय का जल सूख नहीं जाता? उन मलिन परिणामों के द्वारा उसने अशुभ कर्मों का उपार्जन किया। प्राणियों के परिणामों को अनुसार ही शुभ-अशुभ कर्म प्राप्त होते हैं। ___उधर पवित्र बुद्धि से युक्त सुमित्र ने अल्प ऋद्धि होने के बावजूद भी अपनी आय के अनुसार थोड़ा-थोड़ा धन सुपात्र में व्यवहृत किया और “मेरा धन जिनपूजादि पुण्य कार्यों में उपयोगी हुआ, यह उत्तम हुआ"-इस प्रकार हमेशा बार-बार उसकी अनुमोदना भी की। इसी कारण से चन्द्र के उदय से क्षीरसागर के जल की तरह उसका दान-पुण्य निरन्तर तरंगित होने लगा और वृद्धि को प्राप्त हुआ। ___कालान्तर में उस सुमित्र को एक पुत्र हुआ। वह किसी व्यसन में आसक्त था, क्योंकि अग्नि कितनी ही तेजस्वी क्यों न हो, उसमें से निकलता हुआ धूम क्या मलिन नहीं होता? अतः सुमित्र अपने द्रव्य के नाश के डर से अपने पुत्र से सार-सार वस्तुओं को छिपाकर रखता था। जिस पुत्र पर पिता का विश्वास ही न हो, ऐसे पुत्र का जन्म न लेना ही ठीक है। एक बार दूर देश में जाकर व्यापार करने की इच्छा से सुमित्र ने पुत्र के दुर्गुणों के भय से अपने मित्र धनमित्र के यहां स्वर्णादि निधि का स्थापन किया। फिर वह अपने घर से रवाना हुआ। मार्ग में जाते हुए अकस्मात् गुप्त विसूचिका की व्याधि के कारण वह मरण को प्राप्त हो गया। प्राणियों की मृत्यु तो सामने ही रही हुई होती है। वह सुमित्र मरण को प्राप्त होकर निर्मल दान- पुण्य के कारण इसी नगरी में मदन बना है। विधिपूर्वक थोड़ा भी आराधित-सेवित जिनधर्म अद्भुत लक्ष्मी का विस्तार करता है। उसके बाद सुमित्र की भार्या, जो धनमित्र के यहां धन रखने का सारा वृत्तान्त जानती थी, उसने धनमित्र से अपनी निधि अनेक प्रकार से और कई बार मांगी, पर लोभवश उसने नहीं दी। अनुक्रम से वह धनमित्र भी मरण को प्राप्त करके तुम्हारे जामाता सुधन के रूप में उत्पन्न हुआ है। शुभ दान के पश्चात्ताप से उत्पन्न हुए कुकर्म के द्वारा लक्ष्मी ने सहसा उसका त्याग कर दिया। पूर्व में तुम्हारी निधि को छलपूर्वक धनमित्र ने अपने घर पर रखी थी, अतः इस भव में सुधन की निधि स्वयं ही तुम्हारे घर पर आ गयी। हे मदन! शुद्ध अनुमोदना के द्वारा दानपुण्य का विस्तार करने से तुमने अद्भुत संपत्ति को प्राप्त किया है और दान के पश्चात्ताप से उत्पन्न हुए अशुभ कर्मों के कारण धन के समूह ने रंक की तरह सुधन का त्याग किया है।" इस प्रकार ज्ञानी गुरुदेव के मुख से अपना चारित्र सुनकर मदन हर्षित हुआ। फिर

Loading...

Page Navigation
1 ... 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416