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149/श्री दान-प्रदीप
शोभित हो रहे हैं। इसका कण्ठ शंख को भी तिरस्कृत करता है। इसकी दोनों भुजाएँ शूरता रूपी हाथी को बांधने के स्तम्भ के समान शोभित होती हैं। इसकी भृकुटि कामदेव के धनुष के समान प्रतीत होती है। इसके केशों का समूह मयूर के पिच्छसमूह के समान लगता है। अहो! सर्व अंग का संग करनेवाली इसकी सौभाग्य रचना अलौकिक है। अतः यह वृद्धता को प्राप्त ब्रह्मा की सृष्टि तो हो ही नहीं सकती।"
इस प्रकार देखने मात्र से वह वेश्या उसके ध्यान में मग्न हो गयी। पूर्व का कोई परिचय न होने पर भी वह उस पर अत्यन्त प्रेमयुक्त बनी। उसे देखकर तारचन्द्र भी उसके सौभाग्य व उसकी स्वयं पर प्रेमभरी दृष्टि आदि गुणों से आकर्षित होता हुआ अत्यन्त आनन्दित हुआ। कामदेव से प्रेरित होकर उस वेश्या ने उसे अपने घर पर आने का निमन्त्रण दिया । तब कुमार ने हँसते हुए कहा-"मैं यति की तरह अकिंचन हूं। मेरे पास कुछ नहीं है।"
तब उसने स्मित हास्य के साथ कहा-“हे देव! मैं तुम्हारे पास धन की इच्छा नहीं करती। मात्र आपके सौभाग्य से कामक्रीड़ा की इच्छा रखती हूं| धन तो मेरे पास पहले से ही कुबेर के समान है। अतः प्रसन्न होकर तुम्हारे निवास द्वारा मेरे इस आवास को अलंकृत करो।"
इस प्रकार से अत्यन्त अनुनयपूर्वक अंतःकरण में बहुमान धारण करते हुए उस वेश्या ने स्नेहपूर्वक उसे अपने आवास पर रखा। फिर स्नान-भोजनादि के द्वारा उसका इतना ज्यादा बहुमान किया कि कुमार को स्पष्ट प्रतीत हो गया कि यह मेरे वशीभूत हो गयी है। अहो! कुमार के अद्भुत सौभाग्य का वर्णन हम किस प्रकार करें! क्योंकि वेश्या ने उसका निर्धन होते हुए भी इतना ज्यादा बहुमान किया था। फिर कुमार वहां विस्तृत काम–भोगों को अपने घर की भाँति भोगने लगा। मदनमंजूषा द्वारा सर्व समृद्धि पूर्ण किये जाने के कारण उसे दिन और रात तक का पता नहीं चलता था। कुमार के भाग्य की तो कोई सीमा ही नहीं थी, क्योंकि उल्टे वेश्या ही उसको धन प्रदान कर रही थी। हमेशा इच्छानुसार पुष्कल धन देती उस वेश्या को देखकर उसकी वृद्ध अक्का ने उससे कहा-“हे मुग्धा! निर्धनों में अग्रसर इस जार पुरुष को व्यर्थ ही धन देकर तूं क्यों विनाश को न्यौता दे रही है? हे तुच्छ मतियुक्त पुत्री! क्या तूं अपने कुल के आचार को नहीं जानती? हमारी सम्पूर्ण जाति में किसी ने भी किसी कामुक को इस तरह धन नहीं दिया। वेश्या का चित्त एकमात्र धन में ही होता है। अतः वह सौभाग्य, बुद्धिमानी, प्रेम या पराक्रम को कुछ भी नहीं मानती। एकमात्र धन में लुब्ध गणिका कुष्ठी को भी रूपवान मानती है, अगर वह धनिक हो। मूर्ख को भी पण्डित मानती है, अगर वह धनिक हो। अतः हे पुत्री! यह पुरुष भले ही असमान रूपयुक्त व गुणलक्ष्मी का पात्र है, पर निर्धन पुरुषों में शिरोमणि है। अतः शीघ्र ही तूं इसका त्याग कर!"