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192 / श्री दान- प्रदीप
है। तुमने आज भरत, आदित्ययशा (सूर्ययशा) आदि तेरे सर्व पूर्वजों को अपने उन-उन गुणों के द्वारा प्रकट किया है। तुझ जैसे उत्तम पुत्रों से आज आदिनाथ स्वामी का कुल शोभित हो रहा है। सूर्य के अभाव में अन्य ग्रहों से आकाश शोभित नहीं होता । हे राजन! मैं इन्द्र हूं। तुम्हारी परीक्षा करने के लिए धरती पर आया हूं। जगत में उत्तम गुणों के धारी तुम - जैसे राजा की परीक्षा मैं कैसे कर सकता हूं। इस परीक्षा के द्वारा मैंने तुम्हे संतप्त किया है । अतः मेरे अपराध को तुम क्षमा करो, क्योंकि सत्पुरुषों में तो अद्भुत धैर्य होता है। भरत चक्री के सभी कार्य करने की तुझमें क्षमता है । अतः तूं शत्रुंजय की यात्रा व तीर्थ का उद्धार कर । मैं भी वहां आकर तुम्हारी सहायता करूंगा ।"
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यह सुनकर राजा ने हर्षित होते हुए कहा - "हे इन्द्र ! आपने मुझे बहुत अच्छा सुझाव दिया है। आप मेरे लिए भरत महाराज के समान पूज्य हो । आपके कथनानुसार मैं अभी ही संघ को बुलाकर यात्रा के लिए प्रयाण करता हूं।"
यह सुनकर इन्द्र हर्षपूर्वक दण्डवीर्य राजा को दो दिव्य कुण्डल, बाण सहित धनुष, हार व रथ देकर स्वर्ग में चला गया। फिर विशाल कार्यों को करने में कुशल दण्डवीर्य राजा ने तीनों खण्डों में से संघों को आमन्त्रित किया और स्वर्ण के देवालय में आदिनाथ प्रभु की रत्नमय प्रतिमा स्थापित करके यात्रा के लिए प्रयाण किया । मार्ग में स्थान-स्थान पर स्नात्र पूजा, ध्वजारोपण आदि महोत्सवों में करोड़ों का धन व्यय करते हुए वह राजा अनुक्रम से शत्रुंजय पहुँचा। तत्काल इन्द्र भी वहां आया। उसके कथनानुसार विधिपूर्वक राजा ने स्वर्ण, पुष्पादि से तीर्थ की पूजा की और स्नात्र महोत्सव किया। देवों को भी आश्चर्य उत्पन्न करनेवाले उत्सवों की श्रेणि करते हुए और याचकों को इच्छानुसार दान देते हुए राजा ने कल्पवृक्ष बनकर सभी के मनोरथ पूर्ण किये। वहां इन्द्र की आज्ञानुसार राजा ने जीर्ण हुए चैत्यों का स्वर्ण व रत्नों की शिलाओं के समूह द्वारा उद्धार किया । इसी प्रकार रैवताचल पर्वत पर भी यात्रा व जीर्णोद्धार करके विशाल उत्सवपूर्वक राजा निर्विघ्नतापूर्वक अपने घर लौट आया। फिर समस्त संघ का स्वर्ण, रत्न व वस्त्र के द्वारा अनेक प्रकार से सम्मान करके निर्विघ्न रूप से उन सभी को अपने-अपने घर पहुँचाया। स्फटिक मणि आदि के द्वारा अरिहन्तों के करोड़ों चैत्य बनवाकर उसने निरन्तर जिनशासन की प्रभावना की । एक बार भरत चक्री की तरह अरिसा भवन में शरीर की शोभा देखते-देखते अंतःकरण में उच्च भावना प्रकट होने से दण्डवीर्य राजा को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । अर्द्ध पूर्ववर्ष तक चारित्र पर्याय का पालन करके शुद्ध बुद्धियुक्त उस केवली ने समग्र कर्मों का क्षय करके मोक्षपद को प्राप्त किया। इस प्रकार दण्डवीर्य राजा को धन से ही काम, धर्म और मोक्ष प्राप्त हुआ । अतः सर्व पुरुषार्थों में अर्थ की ही प्रधानता है । "