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317/श्री दान-प्रदीप
जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंगपओयणं ।।3।।
भावार्थ:-"श्रीवर्धमान स्वामी ने साधुओं के लिए अचेलक धर्म बताया है और पुरुषादानीय श्रीपार्श्वनाथ स्वामी ने सचेलक धर्म बताया है। एक मोक्षमार्ग प्रपन्न उन दोनों महानुभावों ने अलग-अलग दो मार्ग क्यों कहे हैं? हे प्राज्ञ! दो प्रकार के लिंग-वेष-आकार जानकर-देखकर आपको क्या विप्रत्यय-अश्रद्धा नहीं होती?"
इस प्रकार केशी स्वामी के पृच्छा करने पर उनका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीगौतम गणधर ने कहा-"केवलज्ञान के द्वारा यथार्थ देखकर व जानकर धर्मसाधन की इच्छा की है और लोक-प्रत्यय के लिए उसके अलग-अलग विकल्प भेद बताये हैं। संयम के निर्वाह के लिए तथा उसके आदर-सत्कार के लिए लोक में पूर्वोक्त लिंग-वेष-आकर भी सप्रयोजन-सहेतुक है।"
जो जिनेश्वर वेश पहने बिना भी लोगों की दृष्टि में विभूषित दिखायी देते हैं, वे भी दीक्षा के समय आचार के कारण देवदूष्य वस्त्र अंगीकार करते हैं। निर्ग्रन्थ वस्त्र धारण या ग्रहण करने से परिग्रहीधारी होते हैं ऐसा कभी नहीं सोचना चाहिए, क्योंकि तत्त्वज्ञानियों ने मूर्छा को ही परिग्रह का कारण कहा है। इस विषय में दशवैकालिक में कहा है
जं पि वत्थं व पायं वा न सो परिग्गहो वुत्तो भावार्थ:-"जो भी वस्त्र अथवा पात्र रखने में आते हैं, उन्हें परिग्रह नहीं कहा है।"
जिनकल्पी के भी सभी उपधियों का त्याग नहीं होता। उनके विषय में भी दो से लेकर बारह तक उपधि रखने का कहा है। उस विषय में आगम में कहा है:
दुगतिगचउक्कपणगं, नव दस इक्कारसेव बारसगं। एए अट्ठ विअप्पा, जिणकप्पे हुंति उवहिस्स।।
भावार्थ :-दो, तीन, चार, पाँच, नौ, दस, ग्यारह और बारह-ये उपधि के आठ विकल्प जिनकल्पियों के लिए कहे गये हैं।
अतः शुद्ध बुद्धि और श्रद्धा से युक्त श्रावक के द्वारा साधु को चन्द्र की किरणों के समान उज्ज्वल और स्वयं के द्वारा व्यवहार में लाने से मलिन हुआ, पर शुद्ध वस्त्र दिया जाना चाहिए। जो वस्त्र मुनि के लिए न बना हो, मुनि के लिए खरीदकर न लिया हो, चोरी किया हुआ अथवा किसी से बलात् छीनकर न लिया गया हो, धोया हुआ न हो, मांगकर लिया हुआ न हो, उस वस्त्र को शुद्ध कहा जाता है। अनेक लोग जामाता आदि को वस्त्रदान करते हैं, पर अगर वही वस्त्र सुपात्र को दिया जाय, तो वह प्रशंसनीय दान कहलाता है। उसकी दातारता अनुशंसनीय होती है। अरिहंतों की सेवा करने में जागृत रहनेवाले वे देवेन्द्र धन्य हैं,