Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 384
________________ 373/श्री दान-प्रदीप मुंज अथवा ऐसे ही किसी अन्य पदार्थ को बुनने में व्याकुल चित्त से युक्त थे। वह वणिकजनों के साथ कलह कर रहा था। ऐसे पुरुष को देखकर मंत्री ने उससे पूछा-“हे भद्र! निधिदेव सेठ कहां है? मैं परदेशी मंत्री उससे मिलने के लिए आया हूं।" यह सुनकर उस पुरुष ने शंका से व्याकुल होते हुए कहा-"तुम्हें उससे क्या काम है?" तब मंत्री ने कहा-"मैं उसके घर मेहमान बनकर आया हूं।" कानों में करवत के समान उसके वचन सुनकर मृत्युदशा को प्राप्त होने के समान उसका मुख स्याह हो गया। उसने मंत्री से कहा-“वह मैं ही हूं। अहो! महाकष्ट है कि अत्यन्त दारुण घुण की तरह मेहमान काष्ठ के समान मुझे निरन्तर भीतर ही भीतर कुतर रहे हैं। उसमें भी कुछ कमी रह गयी है, तो उसे पूरी करने के लिए तूं भी आ।" इस प्रकार उसके द्वारा अनादर किये जाने पर भी अपने इच्छित कार्य की सिद्धि की आशा में मंत्री उसके घर के भीतर गया। जहां अपने इच्छित कार्य की सिद्धि हो रही हो, वहां अपमान भी हो, तो भी वह सुखकारक ही है। घर में जाते ही उस सेठ की स्त्री को देखा। मानो विधाता ने वर के रूप को देखकर उसी के अनुरूप वह स्त्री बनायी हो-ऐसी ही वह प्रतीत होती थी। पिशाच के बालकों के समान धूल-धूसरित वर्ण से युक्त क्षुधा से पीड़ित बालक उसे खेदित कर रहे थे। उसका वर्ण कौए के समान था, उसकी चाल ऊँटनी के समान थी, उसका स्वर गधी के समान था, उसकी आकृति भुंडणी के समान थी। उसने काचादि के अत्यन्त तुच्छ आभूषण धारण किये हुए थे। साक्षात् अलक्ष्मी के समान वह दिखायी दे रही थी। उस मंत्री को जिनपूजादि कर्म करने की इच्छा थी, पर उस घर का आचार न होने के कारण वह पूजा नहीं कर पाया, क्योंकि पराये घर में बैलों की तरह मेहमानों की स्वतन्त्र प्रवृत्ति नहीं हो सकती। फिर मध्याह्न के समय उस सेठ के साथ मंत्री भोजन करने के लिए जीर्ण आसन पर बैठा। झूठे बर्तनों में श्लेष्म से सने हाथोंवाली उसकी स्त्री ने उड़द के बाकुले और तेलादि तुच्छ अन्न को परोसा। ऐसा तुच्छ अन्न कभी भी पूर्व में मंत्री के मुख में नहीं गया था। अतः सम्यग् प्रकार से मार्ग को न जानने के कारण वह अन्न मंत्री के गले से नीचे नही उतरा। पर सेठ तो उसी अन्न को शीघ्रतापूर्वक खाने लगा, क्योंकि उसे तो हमेशा से उसी को खाने की आदत थी। मंत्री की भोजन में अरुचि देखकर सेठ को जरा लज्जा आयी। अतः उसने अपने चाकर के पास से दूध मंगवाया। चाकर दूध लेकर आ ही रहा था कि उसका पाँव अखड़ने के कारण वह औंधे मुख धरती पर गिर पड़ा और वह दूध बिखर गया। उसी के साथ मंत्री की आशा भी बिखर गयी। फिर जैसे-तैसे मंत्री ने वही भोजन थोड़ा किया और थोड़ा छोड़ा। फिर हाथ

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