Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 386
________________ 375 / श्री दान- प्रदीप हुआ देखकर मंत्री तुरन्त ही उसके सन्मुख चला। उस समय मंत्री को सामने आता हुआ देखकर श्रेष्ठी भी तत्काल अश्व पर से नीचे उतरा और मंत्री को गले लगाया। कुशलक्षेम के प्रश्न रूपी अमृत द्वारा मंत्री को आनंदित करके उसे साथ लेकर श्रेष्ठी ने घर में प्रवेश किया । वहां चतुर, विनयी और सुभाग्यवान उसके परिवार को देखकर मंत्री विस्मित हुआ । फिर मंत्री और सेठ ने उष्ण जल से स्नान किया। दिव्य और उज्ज्वल वस्त्र पहने और फिर मानो दो रूप धारण किये हों - इस प्रकार उसने भक्तिपूर्वक स्वर्ण की निर्मित जिनप्रतिमा की पूजा की । उसके बाद पशु, बालक, वृद्ध और बीमारादि को संभालकर भोगदेव मंत्री को साथ लेकर भोजनशाला में गया। उसके सर्वत्र औचित्य को देखकर मंत्री चमत्कृत रह गया। मंत्री व परिवार सहित वहां रखे हुए श्रेष्ठ भद्रासन पर वह बैठा । विवेकी पुरुष कौए की तरह मात्र अपने ही पेट को भरनेवाले नहीं होते। उनके सामने मोतियों से जटित स्वर्ण की चौकियाँ रखी गयीं। उन पर सज्जनों की चेष्टा के समान सुवृत्त कुण्डलियाँ रखी गयीं। उसके ऊपर रजत की कटोरियों की श्रेणी के साथ स्वर्णथाल रखे गये । तारों के साथ सूर्य के माण्डले आकाश से नीचे उतरे हों - इस प्रकार से वे थाल शोभित हो रहे थे। I फिर सेठ की पत्नी वहां आयी । उसका मुख पूर्ण चन्द्र के समान मनोहर था। उसके नेत्र विकस्वर कमल के समान थे। उसकी दृष्टि से मानो अमृत झर रहा था। वह अपने सर्वागों में दिव्य अलंकारों को धरण करने के कारण दुगुने सौभाग्य को धारण किये हुए थी । वह विनय गुण से युक्त थी । मानो मूर्तिमान घर की लक्ष्मी हो- इस प्रकार दिखती थी। फिर उसने परोसने के लिए सौभाग्यवती स्त्रियों के पास से उत्तम भोजन की सामग्री मंगवायी। तभी जैसे प्रातःकाल सूर्य आकाश के आँगन को शोभित करता है, वैसे ही पवित्र चारित्र से युक्त तपस्तेज नामक मुनीश्वर ने उसके घर के आँगन को शोभित किया । मूर्तिमान धर्म के समान उन मुनि को देखकर स्वच्छ भक्तियुक्त वह वणिक एकदम से उठ खड़ा हुआ। उनके सन्मुख गया और उन्हें प्रणाम करके उनसे विज्ञप्ति की - "हे प्रभु! आज मेरे घर कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और कामकुम्भादि दिव्य पदार्थ प्राप्त हुए हैं कि जिसके कारण पूर्वजन्म के उदयप्राप्त पुण्यों के समूह के रूप में आप स्वयं मेरे घर पधारे हैं । हे नाथ! मुझ पर कृपा करके इस शुद्ध अन्न को ग्रहण करें ।" यह सुनकर मानो संसार समुद्र से तारने की इच्छा से साधु महाराज ने उसके सामने तुम्बड़े का पात्र रखा। उसने उस पात्र को शुद्ध अन्न - पानादि के द्वारा भर दिया और अपनी आत्मा को अपार पुण्य से भर दिया । पुण्यक्रिया करने में तत्पर मुनियों ने नगर के बाहर उद्यान में जाकर 1. गोल आकारवाले और चेष्टा के पक्ष में सुंदर व्यवहार ।

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