Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 388
________________ 377/श्री दान-प्रदीप समृद्धि इसे प्राप्त हुई है। तुमने स्वयं धनी और भोगी का भेद देख लिया है। अतः अपने राजा को जाकर बताओ।" ऐसा कहकर वह देवी अदृश्य हो गयी। मंत्री ने भी शेष रात्रि आनन्द के साथ निर्गमन की। फिर प्रातःकाल सुमंत्र मंत्री ने सेठ से जाने की आज्ञा मांगी। उस समय भोगदेव ने उसका सत्कार करके उसे विदा किया। वह मंत्री अपने नगर में गया और उन दोनों श्रेष्ठियों के वृत्तान्त रूपी अयस्कान्त मणि के योग से राजा के सन्देह रूपी शल्य को दूर किया। फिर राजा तथा मंत्री धर्म का पालन करके स्वर्ग में उत्पन्न हुए और अनुक्रम से मोक्ष को प्राप्त हुए। अतः बुद्धिमान मनुष्यों को सुपात्रदान में अत्यन्त आदरयुक्त होना चाहिए। पुण्यबुद्धि से युक्त मनुष्य को सुपात्रदान देने के बाद पश्चात्ताप नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसे मुख का श्वास स्वर्ण के वर्ण का नाश करता है, वैसे ही पश्चात्ताप दान के फल का नाश करता है। अल्प बुद्धि से युक्त जो पुरुष सत्पात्र को दान देकर पीछे से पश्चात्ताप करता है, वह निश्चय ही कल्पवृक्ष का वपन करके उसे विष से सींचने का कार्य करता है। दान देने के बाद अगर उस दान की अनुमोदना की जाती है, तो वह फलदायक ही बनती है, क्योंकि वर्षाकाल की बरसात से पकी हुई खेती को अगर श्रेष्ठ वायु मिले, तो वह खेती सफल फलवाली बनती है। जैसे चन्द्र की किरणें समुद्र के जल को वृद्धि प्राप्त करवाती है और नये मेघों की श्रेणियाँ वन की औषधियों को वृद्धि प्राप्त करवाती हैं, वैसे ही विधिपूर्वक की गयी अनुमोदना पुण्य को अत्यन्त वृद्धि प्राप्त करवाती है। स्वयंकृत पुण्य के पीछे की हुई अनुमोदना मात्र ही उत्कृष्ट समृद्धि का कारण नहीं है, बल्कि अन्यों के द्वारा किये हुए पुण्य की अनुमोदना भी अद्भुत समृद्धि की साक्षी बनती है। जो पुरुष दान देकर उसकी अनुमोदना करता है, उसे लक्ष्मी सुलभ होती है। अन्यों को वह लक्ष्मी प्राप्त नहीं होती। इन दोनों विषयों में एक साथ सुधन और मदन का दृष्टान्त है इस भरतक्षेत्र में दक्षिण मथुरा नामक नगरी है। उसमें स्थान-स्थान पर आकाश को स्पर्श करते चैत्यों के शिखर पर स्वर्ण के कलश स्थापित थे। वे कान्ति के द्वारा निरन्तर सूर्य का भी उल्लंघन करते थे। उस नगर में धन की समृद्धि के द्वारा कुबेर के समान धनद नामक धनिक रहता था। उसका मन जिनधर्म रूपी अमृत के द्रह में निरन्तर मत्स्य का आचरण करता था। देह को धारण करनेवाली गृहलक्ष्मी के समान उसके धनमती नामक पत्नी थी। मणि के द्वारा स्वर्ण की तरह उसका रूप शील गुण के द्वारा शोभित था। उस नगरी के पास एक अन्य उत्तर मथुरा नामक नगरी थी। वह स्वर्ग की नगरी के समान विशाल थी और अनेक सम्पत्तियों का आश्रयस्थल थी। उसमे मदन नामक धनिक रहता था। एक बार मदन व्यापार करने की इच्छा से दक्षिण मथुरा में गया, क्योंकि लक्ष्मी

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