Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 368
________________ 357/श्री दान-प्रदीप आदि सामग्री के साथ मनुष्य जन्म को प्राप्त करके अपनी आत्मा का हित करने में तत्पर हुए बुद्धिमान मनुष्यों को निरन्तर धर्म के विषय में यत्न करना चाहिए। शरीर, धन और बान्धवों से भी ज्यादा विशिष्टता धर्म में होती है, क्योंकि यह धर्म प्राणियों के लिए एकान्त हितकारक और परलोक में साथ जानेवाला है। शरीर, बन्धुजन आदि परलोक में साथ नहीं जाते। जिनका प्रभाव सर्वविदित है, ऐसे कल्पवृक्ष, चिन्तामणि और कामकुम्भ आदि पदार्थ धर्म रूपी राजा के वश में है। उसी के राज्य में ये सभी वस्तुएँ दास के रूप में रहती हैं। जैसे गुणों के समूह के द्वारा विशाल यश प्राप्त होता है, वैसे ही इस धर्म के द्वारा विशाल राज्य प्राप्त होता है। कुल्हाड़ी के द्वारा वन की तरह धर्म के द्वारा समग्र दुःखों का समूह मूलसहित उखाड़ा जा सकता है। जैसे मलिन वस्त्र जल के द्वारा शुद्ध होते हैं, वैसे ही अनंत भवों में पाप के द्वारा मलिन जीव भी धर्म के द्वारा क्षणभर में निर्मल बन जाता है। दुर्गति में गिरते हुए पापी प्राणियों को तुरन्त धारण करने के कारण और सुगति में स्थापित करने के कारण पण्डितों ने इसका धर्म नामकरण किया है। धर्म इस भव में कीर्ति, सद्बुद्धि, प्रतिष्ठा और विविध प्रकार की समृद्धि प्रदान कराता है और परलोक में अविचारणीय अद्भुत स्वर्ग और मोक्ष रूपी सम्पत्ति को प्रदान करता है। अतः आत्महित चाहनेवाले पुरुषों को दिन-रात श्रीजैनधर्म की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि यथार्थ उपाय किये बिना सम्यग् प्रकार से उपेय की सिद्धि नहीं होती। वह धर्म दान, शील, तप और भाव के भेद से चार प्रकार का है। इनमें भी दान सर्व सम्पत्तियों का कारण है। देश अथवा सर्व से पालन किया हुआ शील सुख का विकास करता है, गृहस्थों के यश की वृद्धि करता है और लक्ष्मी को प्राप्त करवाता है। छ: प्रकार का बाह्य और छ: प्रकार का आभ्यन्तर तप पूर्वोपार्जित दुष्कर्म रूपी वृक्ष जलाने में दावानल के समान है। पण्डितों के मन रूपी पृथ्वी पर उगे हुए समस्त प्रकार के पुण्य रूपी धान्य शुद्ध भावना रूपी जल के योग से फलप्रदाता बनते हैं। गृहस्थों का विशेष रूप से सभी प्रकार के दानों में उपयोग होना चाहिए, क्योंकि दान के द्वारा शृंगारित लक्ष्मी गृहस्थ पर स्नेहभाव से युक्त बनती है। जैसे कतक के चूर्ण द्वारा जल शुद्ध बनता है और जल के द्वारा वस्त्र शुद्ध बनता है, वैसे ही दान के द्वारा गृहस्थों का धन शुद्ध बनता है। सर्व दानों में पात्रदान श्रेष्ठ है, क्योंकि दान की श्रेष्ठता के बिना फल की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं होती। अहो! पात्र का कैसा प्रभाव है? क्योंकि चित्त के आहलाद के साथ थोड़ा भी दान किया हो, तो भी वह स्वर्ग और मोक्ष की संपत्ति का कारण बनता है। सुपात्रदान करने से भव्यप्राणी परभव में संपत्ति के स्थान बनते हैं और पात्रदान की विराधना करने से आपत्ति का स्थान बनते हैं। इस विषय में धनपति सेठ और धनावह वणिक का उदाहरण स्पष्ट ही है। आपलोग प्रत्यक्ष ही देख रहे हैं।" इस प्रकार गुरु के वचनों को सुनकर राजादि सभासदों ने हर्ष और आश्चर्य को धारण

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