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361/ श्री दान- प्रदीप
इस प्रकार चिरकाल तक अद्भुत पुण्य - क्रियाओं के द्वारा पवित्र हुए अपने आयुष्य को पूर्ण करके वृद्धिप्राप्त अध्यवसाय के द्वारा शुद्ध वह श्रेष्ठीश्वर स्वर्ग की समृद्धि को प्राप्त हुआ । वहां से च्यवकर उत्तम कुल में जन्म लेकर पहले उत्कृष्ट समृद्धि को प्राप्त करके और बाद में चारित्र को अंगीकार करके समग्र कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करेगा ।"
हे बुद्धिमान भव्यों! इस प्रकार मुनि को पात्रदान करने से प्राप्त हुए पुण्य के प्रभाव से मनोहर धनपति सेठ का अद्भुत चरित्र सुनकर पात्रदान करने में सावधान बनना चाहिए, जिससे मोक्ष सुख रूपी लक्ष्मी स्वयं अपनी इच्छानुसार तुम्हारा वरण करे ।
।। इति एकादश प्रकाश ||
9 द्वादश प्रकाश
जिनका आगम गुण-दोष का विवेक करने में अत्यन्त समर्थ है, वे श्री वर्द्धमानस्वामी हमारी समृद्धि को वृद्धियुक्त बनायें ।
अब इस बारहवें प्रकाश में गुण-दोष का व्याख्यान किया जायगा, क्योंकि गुणयुक्त और दोषरहित जो दान दिया जाता है, वही मुक्ति का कारण बनता है।
दान के पाँच दोष बताये गये हैं- 1. आशंसा, 2. अनादर, 3. पश्चात्ताप, 4. विलम्ब और 5. गर्व ।
इनके विपरीत गुण कहलाते हैं ।
अल्पबुद्धियुक्त दातार दान के फल मोक्ष के सिवाय अन्य किसी फल की आकांक्षा करते हैं, पण्डितों ने उसे आशंसा दोष कहा है। यह आशंसा इसलोक और परलोक से संबंधित दो प्रकार की होती है। उसमें से दातार को जो इस लोक संबंधी कीर्ति आदि की इच्छा होती है, वह पहली इहलोक आशंसा कहलाती है। सर्व समृद्धि को प्रदान करनेवाले दान के द्वारा इस लोक संबंधी फल की वांछा करनेवाला रंक प्राणी एक मुट्ठी अनाज के द्वारा महारत्न को बेच देता है । पुण्य की इच्छावाले पुरुष के द्वारा कीर्ति के लिए दान देना योग्य नहीं है, क्योंकि कीर्ति की इच्छा से बुद्धि में क्लिष्ट परिणाम उत्पन्न होते हैं। उससे वह दान का पुण्य हार जात है। इसी प्रकार कीर्ति प्राप्त करने के हेतु से उसके उपाय रूप गीतादि में आदर करने से वह सत्य कीर्ति को प्राप्त नहीं करता, बल्कि सत्पुरुषों में हँसी का पात्र बनता है। जोती हुई भूमि