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370/श्री दान-प्रदीप
विपरीतता दिखायी देती है। इस भव में जो कर्म जिस प्रकार किया जाता है, उस कर्म का वैसा ही फल परलोक में प्राप्त होता है। मैं ऐसा मुख किसी को दिखा भी नहीं सकता। अतः मैं नगर में भी नहीं जाता हूं। अगर कोई यहां आ जाता है, तो मैं अपना मुख वस्त्र से ढंक लेता हूं। हे मित्र! तुझे सीख देने के लिए ही तुम्हारे बड़े भाई ने तुम्हें यहां भेजा है। अतः किसी को भी दुर्वचन नहीं बोलने चाहिए। दान देते समय तो विशेष रूप से इस बात का ख्याल रखना चाहिए।"
इस प्रकार सुनकर भीम ने उसकी शिक्षा को स्वीकार किया और लज्जापूर्वक नगर में लौट आया। उसके बाद वह तापसों को निरन्तर प्रिय वचनों के द्वारा निमन्त्रित करने लगा।
'ये महात्मा ज्ञान और क्रिया के पात्र हैं, सर्व गुणों की खान हैं। अतः मेरे घर में जो भी अच्छी वस्तु है, वह मुझे इनको देना योग्य है। इन्हें भावपूर्वक विधि-प्रमाण अल्प भी दिया जाता है, तो भी वह संगमादि के समान महान लाभ के लिए ही होता है।" इस प्रकार मन में आदर व उल्लासपूर्वक उदार चित्तवाले पुरुष को पात्रदान करना चाहिए, क्योंकि उत्तम वित्त
और उत्तम पात्र का योग शुभ चित्त के साथ रहा हुआ हो, तो ही वह सफल होता है। सर्व धर्मों का उत्कृष्ट कारण शुभ भाव ही है। उसके बिना किसी भी प्रकार के दान का अतिशय फल प्राप्त नहीं होता। भावरहित दान देने पर कई लोगों को तो उसका फल ही प्राप्त नहीं होता और दान न देने पर भी कई लोगों को केवल भावना के द्वारा उत्तम फल प्राप्त होता है। इस विषय में जीर्ण श्रेष्ठी की कथा शास्त्रों में सुनी जाती है, वह इस प्रकार है
वैशाली नामक नगरी में शुद्ध बुद्धियुक्त जिनदत्त नामक परम श्रावक रहता था। वह जीर्णश्रेष्ठी के नाम से प्रसिद्ध था। एक बार उस नगरी के उद्यान में चार मास की तपस्या के साथ श्रीमहावीरस्वामी ने चौमासा किया। उन्हें पारणा करवाने की भावना के साथ जीर्णश्रेष्ठी हमेशा उनकी सेवा किया करता। चौमासे के अन्तिम दिवस पर वह पारणे के लिए प्रभु को निमन्त्रित करके हर्षपूर्वक अपने घर गया। जिनपूजा आदि नित्यकर्म करके अपने घर के आँगन में खड़े होकर जिनेश्वर के मार्ग के सम्मुख दृष्टि रखकर जीर्णश्रेष्ठी विचार करने लगा-"आज मैं स्वामी को अमुक-अमुक प्रासुक भोजन दूंगा। वास्तव में मुझे धन्य है! मैं कितना पुण्यशाली हूं कि मेरे घर आज विश्व के नाथ स्वयं पधारेंगे और पारणा करेंगे। प्रभु को आता देखकर मैं हर्षपूर्वक उनके सम्मुख जाऊँगा, आदरपूर्वक उनकी प्रदक्षिणा करूंगा और उनके चरण-कमलों में वंदन करूंगा। उन्हें पारणा करवाकर मैं अपने हाथों में मोक्षलक्ष्मी को ग्रहण करूंगा। भगवान का तो दर्शन मात्र ही मुक्ति का कारण है, तो फिर उन्हें पारणा करवाने से तो मुक्ति की प्राप्ति का तो कहना ही क्या?"
इस प्रकार क्षण-क्षण वृद्धि को प्राप्त शुद्ध अध्यवसायों के कारण दान दिये बिना ही