Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 375
________________ 364/ श्री दान-प्रदीप इस प्रकार अशुभ परिणाम के कारण देवायुष्य के बंध से नीचे गिरते हुए यक्ष को देखकर मुनि ने कहा-'हे महाभाग्यवान्! मत गिर–मत गिर।" यह सुनकर यक्ष ने क्रोधपूर्वक कहा-“हे मुनि! क्या तुम पागल हो गये हो? मैं तो कहीं नहीं गिर रहा हूं। यह घी गिर रहा है। इसका तो तुम निषेध नहीं कर रहे।" उस समय 'घी गिर रहा है' सुनकर मुनि ने घी पर दृष्टि डाली, तो उसे गिरता हुआ देखकर मुनि ने खेदपूर्वक मिथ्या दुष्कृत दिया। ___ यह सुनकर यक्ष ने क्रोधपूर्वक मुनि से कहा-“हे मुनि! इतने समय तक तुम कहां चले गये थे? कि अब मिथ्या दुष्कृत दे रहे हो। घी को गिरते देखकर तुमने उसे रोका, तो भी वह रुका नहीं, क्योंकि वह तुम्हारे आधीन नहीं था, कि रोकने से रुके।" यह सुनकर सुदत्त मुनि ने उससे कहा-“ऐसे उद्धत कथन के द्वारा तुम क्यों अपनी आत्मा का नाश कर रहे हो? क्योंकि जले हुए पर नमक छिड़कने के समान है।" यह सुनकर यक्ष ने सोचा कि यह साधु असंबद्ध प्रलाप क्यों कर रहा है? उसने आक्षेपपूर्वक कहा-“हे मुनि! तुम क्रोध में ऐसा विपरीत वचन क्यों बोल रहे हो?" ___मुनि ने कहा-"हम क्षमावान हैं। हमें कुछ भी क्रोध नहीं है। पर यथार्थ वचन ही मैंने कहे हैं।" __यह सुनकर यक्ष ने पूछा-“हे मुनि! वह सत्य क्या है?" तब साधु ने कहा-“हे श्रावक! सावधान होकर सुन । मैं जब तुम्हारे घर आया, तब तुम मुझे घी देने के लिए तैयार हुए। तुम्हारे शुद्ध वृद्धि को प्राप्त होते भावों को देखकर मैं विस्मित रह गया। अतः मैंने श्रुतज्ञान का उपयोग लगाया, तुम्हें देवायुष्य को बांधते हुए पाया। अर्थात् तुम सौधर्म देवलोक से भी ऊपर का आयुष्य बांधने में वृद्धि को प्राप्त हो रहे थे। शुभ ध्यान के कारण तुमने अच्युत देवलोक तक के आयुष्य के दलिकों को इकट्ठा कर लिया था। इस प्रकार तुम्हारे आयुष्य के बंध में मेरा उपयोग होने के कारण घी में तो मेरा उपयोग ही नहीं था। पात्र में से घी नीचे गिरने लगा। पर मेरा उपयोग तो वहां था ही नहीं। मैं तो तुम्हारे आयुष्य बंध के उपयोग में था। तुम अच्युत देवलोक के बंध से नीचे गिर रहे थे। अतः मैंने कहा था-'मत गिर–मत गिर' । उस समय क्लिष्ट परिणाम के कारण तुमने देवगति के शुभ आयुष्य को तोड़ दिया। फिर जब तुम्हारी बुद्धि मुझ पर द्वेषयुक्त बनी, तुम क्रोध से उद्धत वचन बोलने लगे, तब तुम्हारा समकित नष्ट हो गया। तुम तिर्यंचायु का बंध करने लगे, तब मैंने तुमसे कहा कि यह जले पर नमक छिड़कने के समान है, क्योंकि तुमने देवायु का नाश करके तिर्यंचायु का बंध किया। इस प्रकार मैंने सत्य ही कहा है। पर मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति कुछ भी रोष

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