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363/श्री दान-प्रदीप
तो जल्दी से घर से बाहर निकल, क्योंकि तेरी इस भावना के अनुरूप और मेरे इस दुष्कर तप के फलस्वरूप तो आकाश में से पत्थर की वृष्टि ही संभव है।"
इस प्रकार कहकर वह वेषधारी अपने स्थान पर लौट गया। वृद्धा ने भी अत्यन्त कष्टपूर्वक काल का निर्गमन किया।" ____ हे बुद्धिमान जनों! इस दृष्टान्त से यह जानना चाहिए कि आशंसा रहित होकर ही दान गर्म में प्रवृति करनी चाहिए।
इस प्रकार महाबुद्धियुक्त मनुष्य परभव में ऐश्वर्यादि पाने की इच्छा से दान न करे, क्योंकि वैसी इच्छा रखने से प्राणियों द्वारा कृत दान का फल कम हो जाता है। आशंसा के कारण अगर कदाचित् परभव में भोग-प्राप्ति होती भी है, तो वह विकार को प्राप्त होता है। वासुदेव और प्रतिवासुदेव की तरह मरकर वह दुर्गति में ही जाता है। आशंसा रहित दान करनेवाला शुद्ध अध्यवसाय से युक्त बनता है और स्वर्गादि सुख की आशंसा करनेवाला शुभ अध्यवसाय से युक्त नहीं बन पाता। इस पर यक्ष श्रावक की कथा है, जो इस प्रकार है :
लक्ष्मी के स्थान रूप वसंतपुर नामक नगर में मोटी बुद्धि से युक्त यक्ष नामक श्रावक रहता था। अपने कृत्य को जानकर वह यक्ष अपने वित्त को पात्र के आधीन करके पवित्र करता था। पुण्यशाली के पुण्य से उत्पन्न हुई ऋद्धि पुण्य का ही बंध करनेवाली होती है। एक बार उसके घर अनंत शुभ गुणों से युक्त, महा तपस्वी और व्रत पालन करने में ही बुद्धि को धारण करनेवाले सुदत्त नामक मुनि पधारे। उन्हें आता हुआ देखकर यक्ष अति प्रसन्न हुआ। तुरन्त उठकर घी का पात्र हाथ में लेकर हर्षपूर्वक बोला-“हे पूज्य! यह घी ग्रहण करके मुझ पर कृपा कीजिए।"
यह सुनकर और उसके भाव जानकर सुदत्त मुनि ने उसके सामने अपना पात्र रखा। उस समय हर्ष के अत्यन्त उल्लास से यक्ष का समग्र शरीर रोमांच से व्याप्त हो गया। दान देने में चतुर बुद्धियुक्त वह मुनि के पात्र में घी डालने लगा। उस समय मुनि को विचार हुआ-"यह श्रद्धालू ऐसे विशुद्ध अध्यवसाय के द्वारा कैसे शुभ कर्मों का उपार्जन कर रहा है?"
ऐसा विचार करके उस पर उपयोग लगाया। वह श्रावक घी के द्वारा पात्र को और पुण्य के द्वारा अपनी आत्मा को भरने लगा। अन्य स्थान पर उपयोग होने के कारण मुनि ने पात्र भर जाने के बाद भी निषेध नहीं किया। घी बाहर निकलकर पृथ्वी पर गिरने लगा। उधर यक्ष श्रावक के मन के अध्यवसाय भी गिरने लगे। उसने विचार किया-"अहो! ये मुनि कैसे प्रमादी हैं? कितने लोभी हैं? घी से पात्र भर गया, पर इनका मन नहीं भरा। अतः वाणी से निषेध भी नहीं किया। इन्हें दान देने का क्या फल?"