________________
359 / श्री दान- प्रदीप
वचन क्यों बोलता है? कौन बुद्धिमान इन तपस्वियों की निन्दा करेगा? सर्व पाप से निवृत्ति को प्राप्त और पुण्यकर्म में ही प्रवर्तित ये यति पूजा के ही योग्य हैं। उनकी निन्दा करते हुए तुझे कैसे लज्जा नहीं आयी ? हे मूर्ख ! तीन जगत के द्वारा वन्दन के योग्य इन पवित्र मुनियों को दान न दिया जाय, तो अन्य कौन दान के योग्य हो सकता है? यह तुम ही बताओ । इन यतियों को दान देने से श्रेष्ठ क्षेत्र में बोये हुए बीज के समान अत्यन्त उत्कृष्ट फल की प्राप्ति होती है । "
इस प्रकार कहकर उसे निरुत्तर किया। पर उसके दुष्ट परिणामों को वह नष्ट नहीं कर सका। फिर पात्र साधु के पास लेकर आया । अंतःकरण में न समाने से बाहर व्याप्त हर्ष के साथ रोमांच की श्रेणी को धारण करते हुए तथा अपने चित्त के समान निर्दोष उस पात्र को हाथ में लेकर मानो पुण्य की याचना कर रहा हो - इस प्रकार विनयपूर्वक उसने मुनि को विज्ञप्ति की - " मुझ पर कृपा करके इस शुद्ध पात्र को ग्रहण कीजिए । "
तब मुनि ने भी पात्र को शुद्ध जानकर उसे ग्रहण किया और अपने उपाश्रय की तरफ लौट गये। उस समय सूर भी मानो पात्र देकर सम्पदा ग्रहण करने के विनिमय को दृढ़ कर रहा हो - इस प्रकार हर्षपूर्वक उन मुनि के पीछे-पीछे सात-आठ कदम तक गया। सम्यग् प्रकार की भक्ति के साथ मुनि के पीछे जाकर फिर वापस घर आकर हर्ष से पूर्ण हुआ सूर शुद्ध बुद्धिपूर्वक विचार करने लगा - " मैं मानता हूं कि आज मेरी आत्मा पुण्यशालियों में अग्रसर बनी है, क्योंकि आज मुनियों ने अपने चरण-कमलों के द्वारा मेरे घर को पावन किया है। आज मेरा पात्र मुनियों के लिए उपकारक हुआ । अतः मेरी सम्पत्ति भी कृतार्थ हुई और मेरा जीवन भी सफल हुआ।"
इस प्रकार निरन्तर प्रसरती अनुमोदना रूपी भावधारा के द्वारा उसने अपना पात्रदान रूपी पुण्य वृक्ष प्रफुल्लित किया। अनुक्रम से निर्मल अंतःकरणवाला वह सूर शुद्ध विधियुक्त मरण को प्राप्त करके शिष्टजनों में अग्रसर यह धनपति सेठ बना है। इसने पूर्वभव में शुद्ध भावों के द्वारा साधुओं को श्रद्धापूर्वक जो पात्रदान किया, उसी पुण्य के प्रभाव से यह स्वर्णकुम्भ आदि संपत्ति का स्वामी बना है। प्राणियों को जो अखण्ड सौभाग्य प्राप्त होता है, जो विशाल राज्य प्राप्त होता है, जो शाश्वत प्रभाव प्राप्त होता है, अत्यन्त कीर्ति प्राप्त होती है, निरन्तर सुख के द्वारा मनोहर दीर्घ आयु प्राप्त होती है, आपत्ति रहित संपत्ति प्राप्त होती है, वह सभी सुपात्र को दिये गये वित्त की महिमा ही दम्भरहित जयवन्त वर्तित होती है। उधर दुष्ट अध्यवसाय के द्वारा धीर ने अत्यन्त अशुभ कर्मों का उपार्जन किया। अतः मरकर वह दरिद्र धनावह वणिक बना। उसने पूर्वजन्म में दुष्टबुद्धि से पात्रदान का निषेध किया था, अतः उस पाप के कारण उसे जीवन-भर दरिद्रता का ही दुःख भोगना पड़ा । अकाल में कालसर्प ने उसे कालधर्म को प्राप्त करवाया । दानधर्म की विराधना करनेवाला पग-पग