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358/श्री दान-प्रदीप
किया। फिर धनपति विचारने लगे-"अहो! गुरु महाराज की मुझ पर कितनी कृपा है! कि मेरा ही उदाहरण सबके सामने रखा।"
ऐसा विचार करके धनपति के नेत्र हर्ष से विशेष विकस्वर हुए। फिर उस सेठ के पूर्वभव के पुण्यों को सुनने की इच्छा से कौतुकी हुए राजा ने हर्षपूर्वक केवली भगवान को पूछा-"हे प्रभु! पूर्वजन्म में धनपति ने किस प्रकार पात्रदान की आराधना की? और धनावह वणिक ने किस प्रकार पात्रदान की विराधना की?"
तब गुरु महाराज ने कहा-"सुन्दर नामक ग्राम में सूर और धीर नामक दो कुटुम्बी रहते थे। उनमें सूर स्वभाव से ही दयालू और सरल था। जिनका कल्याण समीप हो, उनकी बुद्धि सन्मार्ग का ही अनुसरण करती है। उनके हृदय में साधुओं के प्रति शुद्ध रागभाव होता है। आलते का रंग स्त्रियों के भूषण के लिए ही होता है। पर धीर तो अपने दुष्कर्म के अत्यन्त उदय के कारण द्राक्ष के वन में ऊँट की तरह धर्म से विमुख था। उन दोनों के घर पास-पास होने से उनमें परस्पर प्रीति थी। पर हंस और बगुले की तरह उनके स्वभाव में अन्तर था।
एक बार सूर के घर में उसके पुण्य से प्रेरित मुनि शिष्य के लिए पात्र की याचना करने के लिए आये। उन्हें देखकर सूर ने पहले भक्तिपूर्वक उन्हें नमन किया और फिर हाथ जोड़कर कहा-"अहो! आपका मन मुझ पर प्रसन्नता के द्वारा कितना निर्मल है? क्योंकि इस ग्राम में समृद्धियुक्त व्यापारियों के अनेक घर हैं। पर फिर भी उन्हें छोड़कर अकस्मात् बिना बुलाये आप मुझ गरीब के घर पर पधारे। आप पूज्यों की समदृष्टि जगत में आश्चर्यकारक है। क्योंकि धनाढ्य और निर्धन के विषय में आपकी वृत्ति तुल्य है। मुझ पर कृपा करके शुद्ध आहारादि को ग्रहण करें अथवा अन्य किसी वस्तु की आवश्यकता हो, तो बतायें।"
इस प्रकार शुद्ध भक्तियुक्त बोलते हुए सूर को मुनि ने कहा-"हम शिष्य के लिए पात्र लेने तुम्हारे घर आये हैं।"
यह सुनकर हर्षित होता हुआ सूर घर के भीतर गया। कहीं रखा हुआ शुद्ध पात्र लेकर मुनि को देने के लिए जैसे ही बाहर आया, तभी किसी कार्य से धीर वहां पर आया। उसने उसे पात्र का दान करते देखकर कहा-“हे मित्र! नेत्रों को प्रिय यह पात्र बिना मूल्य लिये मुनियों को क्यों दे रहे हो? ये यति शौच आचार से रहित, दूसरों को ठगने में चतुर और माया-कपट के घर हैं। इन्हें दान देना उचित नहीं है। इस पात्र को बेचने से तो तुम्हें धनलाभ होगा। अतः व्यर्थ ही यतियों को देकर तुम अपना नुकसान मत करो।" ।
इस प्रकार कर्ण में करवत के समान उसके कठोर वचन को सुनकर सूर के मन में क्रोध उत्पन्न हुआ। उसने स्पष्ट रूप से कठोर वचनों में प्रत्युत्तर दिया-"अरे मूढ! तूं ऐसा निन्द्य