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353/श्री दान-प्रदीप
इस प्रकार उन्मत्त की भांति स्वेच्छापूर्वक असंबद्ध प्रलाप करते उसके ऊपर क्रोध को प्राप्त मार्ग के मुसाफिर की बुद्धिवाले ज्ञाति के वृद्ध पुरुषों ने कहा-"असत् कल्पनाओं को विस्तृत करनेवाले हे वाचाल! उल्लंठ की तरह संबंधरहित और धर्म व न्याय का उल्लंघन करनेवाले वचन क्यों बोलते हो? तुम्हारे पूर्वजों ने यहां इस जगह निधि का स्थापन किया था यह बात आज तक मेरे वंश के किसी भी व्यक्ति अथवा अन्य किसी ने भी नहीं सुनी। अब इस सेठ के भाग्य से यह निधि प्रकट हुई है, तो मूर्ख मनुष्य की तरह व्यर्थ असंबद्ध प्रलाप करते हुए तुझे शर्म नहीं आती? प्राणियों को पुण्य के प्रभाव से ही पग-पग पर पृथ्वी पर अनेक प्रकार के निधान मिला करते हैं। तेरे घर की पृथ्वी का मालिक अब यह सेठ है। अतः इस निधि का स्वामी भी यही है, क्योंकि जो गाय का स्वामी होता है, वह क्या उसके गर्भ में रहे बच्चे का स्वामी नहीं होता? बिना कारण विवाद करने से कुछ भी फल मिलनेवाला नहीं है, बल्कि इसके विपरीत अनेक विपत्तियाँ आ पड़ने का अंदेशा रहता है। जो दुर्बुद्धि अन्यायपूर्वक धन की अभिलाषा करता है, उसे चार मित्रों की तरह आपत्तियाँ ही प्राप्त होती हैं। वह इस प्रकार
हेमपुर नामक नगर में राजा, मंत्री, श्रेष्ठी और पुरोहित-इन चारों के चार पुत्र बाल्यावस्था से ही मित्र थे। वे समान वयवाले थे। एक के सुखी होने पर सभी सुखी होते थे और एक के दुःखी होने पर सभी दुःखी हो जाया करते थे।
एक बार उन सभी ने देशान्तर जाकर विविध कौतुक देखने का विचार किया। अतः वहां से चलकर अनुक्रम से अत्यधिक मार्ग का उल्लंघन करते हुए रात्रि के समय किसी अरण्य में पहुँचे। वहां धैर्ययुक्त उन्होंने एक वृक्ष के तले रेत पर निवास किया। जागृत को भय नहीं रहता इस नीति को जानने के कारण उन्होंने अनुक्रम से एक-एक प्रहर बारी-बारी सभी के लिए जागने का निर्धारित किया।
। उनमें सबसे पहले श्रेष्ठीपुत्र की बारी थी। अन्य तीन कुमार सो गये। उस समय उस वृक्ष के शिखर पर शब्द हुआ-"यहां अत्यधिक द्रव्य है, पर वह अनर्थ सहित है। अगर तेरी इच्छा हो, तो तुझे प्राप्त हो सकता है।"
ऐसी वाणी को सुनकर अनर्थ के भय से श्रेष्ठी पुत्र ने "नहीं-नहीं'-इस प्रकार शब्द करके उसका निषेध किया, क्योंकि वणिक लोग भय के स्थान होते हैं।
फिर दूसरे और तीसरे प्रहर में मंत्रीपुत्र और पुरोहित पुत्र की बारी में भी उन्होंने भय के कारण उस द्रव्य को ग्रहण करने का निषेध किया। फिर राजपुत्र की बारी आयी। उन तीनों के सो जाने के बाद उसने भी वही वाणी सुनी। उग्र साहस के कारण उसने विचार किया-"जो धीर होता है, वही प्रकट रूप से लक्ष्मी को भोगता है। पर कष्ट को न सह सकनेवाला कायर