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354/श्री दान-प्रदीप
पुरुष लक्ष्मी को भोग नहीं सकता, क्योंकि कान स्वर्ण के अलंकारों से शोभित होता है और नेत्रों में काजल आंजा जाता है।"
इस प्रकार विचार करके उसने कहा-"इच्छानुसार आ।"
तब तुरन्त ही उसके पास दैदीप्यमान शरीर से युक्त स्वर्ण पुरुष आकर गिरा। फिर प्रातःकाल होने पर वे सभी जागृत हुए और उस स्वर्ण पुरुष को देखकर प्रसन्न हुए और आगे चले। रात्रि की कथा को परस्पर कहते हुए मार्ग को छोटा बनाने लगे। फिर भोजन की बेला होने पर किसी ग्राम के समीप पहुँचे। वहां भोजन लेने के लिए श्रेष्ठीपुत्र और मंत्रीपुत्र ग्राम के मध्य गये। उन्होंने मार्ग में विचार किया-"हमें ही उस स्वर्णपुरुष का स्वामी बनना चाहिए।"
इस प्रकार विचार करके उन दुर्बुद्धियों ने भोजन को विषमिश्रित बना दिया। फिर भोजन लेकर वे दोनों ग्राम के बाहर गये। उस समय बाहर रहे हुए राजपुत्र और पुराहित पुत्र ने भी दुष्ट बुद्धि से वैसा ही विचार किया। अतः उन दोनों के आने पर तुरन्त तीक्ष्ण तलवार से उन दोनों को मार डाला। फिर उन दोनों का लाया हुआ विषमिश्रित भोजन खाकर यमराज के घर पहुँच गये। अत्यन्त उग्र पाप का फल तुरन्त ही मिलता है।
इस प्रकार अन्याय से उन चारों मित्रों ने धन की इच्छा की, अतः उसी भव में वे मरण को प्राप्त हुए और परलोक में नरक की व्यथा को प्राप्त हुए। अतः हे धनावह! अगर तेरा आत्महित चाहता है, तो इस अन्याययुक्त दुष्ट मति का दूर से त्याग कर और इस व्यर्थ के मिथ्या विवाद को छोड़ दे।"
इस प्रकार वृद्धजनों के द्वारा निषेध के बावजूद भी धनावह कलह का त्याग नहीं किया। सैकड़ों प्रयास करने के बावजूद भी कुत्ते की पूंछ वक्रता का त्याग नहीं करती। फिर उसने कहा-"तुम मुझे मेरी निधि नहीं दे रहे हो, तो ठीक है। जब कल प्रभात होगा, तो मैं राजा के समक्ष वह निधि तुमसे ग्रहण करूंगा। उस समय मेरी शक्ति का प्रमाण तुम देखना।"
यह कहकर तुरन्त वहां से उठकर वह अपने घर चला गया। असत्य भाषण करनेवाले उस दुष्ट पुरुष का मुख देखने में असमर्थ होकर मानो सूर्य अस्ताचल की ओर प्रयाण कर गया। उस समय आकाश में रहे हुए व्यक्ति मानो कोलाहल करते हुए उसे कहने लगे-"हे दुष्ट! असत्य भाषण मत कर। तेरी मौत नजदीक ही है।"
उस समय केवल दिशाएँ ही अन्धकार के समूह से मलिनता को प्राप्त नहीं हुई, बल्कि उसकी आत्मा भी चारों तरफ से पाप के समूह के कारण मलिनता को प्राप्त हुई। फिर वह पापी अपने घर जाकर विचार करने लगा-"मैं निधि को किस प्रकार ग्रहण करूं? उसे किस प्रकार दण्ड दिलवाऊँ?"