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349/श्री दान-प्रदीप
इस प्रकार चिरकाल तक राज्य को भोग करके तथा धर्म का आराधन करके वह ध्वजभुजंग राजा सौधर्म देवलोक में गया। वहां से च्यवकर कुछ ही भवों के बाद समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष को प्राप्त करेगा।' ___ इस प्रकार सुपात्र को वस्त्रदान करने के पुण्य द्वारा माननीय ध्वजभुजंग राजा का अद्भुत चरित्र सुनकर पुण्य बुद्धियुक्त भव्य प्राणियों के द्वारा मुनियों को शुद्ध वस्त्र का दान करने में निरन्तर तत्पर रहना चाहिए।।
|| इति दशम प्रकाश।।
* एकादशम प्रकाश
जिन्होंने खीर के एकमात्र पात्र में से पन्द्रहसौ तापसों को पारणा करवाया, वे श्री गौतमस्वामी सत्पुरुषों के सुखप्रदाता बनें।
अब इस ग्यारहवें प्रकाश में धर्म के विषय में उपष्टम्भ दान देने के विषय में पुण्य द्वारा पुष्ट हुआ, सुपात्र को पात्रदान देने रूप आठवां भेद कहा जाता है। विवेकी पुरुषों को अपनी आत्मा को पात्र बनाने के लिए सुपात्र (मुनि) को पात्र का दान देना चाहिए, क्योंकि मुनिधर्म का उपकारक होने से वह पात्र का दान मोक्ष का कारण है-ऐसा गणधरों ने कहा है, क्योंकि मोक्ष का कारण कर्म का क्षय है, कर्मक्षय का कारण चारित्र है, चारित्र का पालन शरीर के आधीन है, शरीर की स्थिति का कारण आहार है और लब्धिरहित पुरुष पात्र के बिना आहार करने में समर्थ नहीं हो सकता। अतः आहार का कारण पात्र है, क्योंकि लब्धियुक्त तीर्थंकरादि ही हाथ रूपी पात्र में भोजन कर सकते हैं। लब्धिरहित पुरुष पात्र के बिना भोजन करते हैं, तो पशु की तरह विडम्बना को ही प्राप्त होते हैं, अनेक प्राणियों की विराधना करनेवाले होते हैं और इस युग के मुनियों को तो अल्प भी लब्धि नहीं होती। अतः धर्म के रहस्य को जाननेवाले पण्डितों ने पात्र को मुक्ति का कारण बताया है। जिनके हाथ में जल के हजारों घड़े डालने के बावजूद भी मानो मंत्र से स्तम्भित किया हो इस प्रकार उनके हाथों से एक बिन्दू भी नीचे नहीं गिरती, ऐसे जिनेश्वर भी दीक्षा लेने के पश्चात् अपने शिष्यों को मार्ग दिखाने की इच्छा से प्रथम पारणे समय पात्र ग्रहण करते हैं। ऐसा होने पर भी जो जिनेश्वरों का दृष्टान्त देकर कर रूपी पात्र में भोजन करते हैं, वे जिनेश्वरों की आज्ञा का भंग करने से मार्ग में प्रवर्तित होनेवाले नहीं कहला सकते। इस विषय में श्रीदशवकालिक सूत्र में कहा