Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 355
________________ 344/श्री दान-प्रदीप स्त्रियों के वस्त्रों को खींचकर और मुनियों के वस्त्रों का हरण करते हुए वह कदापि लज्जा को प्राप्त नहीं होता था। एक बार वह पापी अपने सिपाहियों के साथ शिकार करने के लिए किसी वन में गया। वैसे दुष्टों का कार्य भी वैसा ही होता है। उस समय वहां समीप के मार्ग से अनेक साधुओं के परिवार से युक्त और देवों को भी आकर्षित करनेवाले विशेष अतिशय से युक्त सूरि महाराज वहां से निकले । उन श्वेताम्बर मुनियों को देखकर वह निर्दयी, दुष्टविचारी पल्लीपति चकवे के पीछे चकवी की तरह धनुषबाण हाथ में लेकर उनके पीछे दौड़ा और कहा-"रे रे निर्लज्ज मुण्डों! जल्दी से अपने कपड़े उतार दो, अन्यथा मेरा बाण त्वरा से तुम्हारे प्राणों का हरण कर लेगा।" इस प्रकार क्रोध करते हुए वह जैसे ही मुनियों पर आक्रमण करने के लिए आगे बढ़ने लगा, वैसे ही उन सूरि के अतिशय से प्रभावित किसी देव ने उसे स्तम्भित कर दिया। वह आगे या पीछे एक कदम भी नहीं चल पाया। रोपे हुए थम्भे की तरह स्थिर हो गया। उस समय वह शरीर में एक साथ सैकड़ों बिच्छुओं के डंक मारने से होनेवाली वेदना के समान दिव्य शक्ति से उत्पन्न की गयी दुःसह्य वेदना का अनुभव करने लगा। वह उच्च स्वर में आक्रन्दन करते हुए वृक्षों को रुलानेवाली वाणी में चिल्लाने लगा-"हे सेवकों! मैं मर रहा हूं। जल्दी से मेरी रक्षा करो।" उसकी उस अवस्था को देखकर हाहाकार करते हुए उसके सिपाही उसे वहां से हिलाने की कोशिश करने लगे, पर पर्वत की तरह निश्चल उसे वहां से रंचमात्र भी नहीं हिला पाये। उसकी पीड़ा को शान्त करने के लिए भी सेवकों ने अनेक उपाय किये, पर वे सभी उपाय अग्नि में घी का होम करने के समान उसकी पीड़ा बढ़ाने में कारणभूत ही सिद्ध हुए। उसे इस तरह देखकर दयालू गुरुदेव परिवार के साथ वहां आकर खड़े हुए और सोचने लगे-"हहा! यह इसे क्या हो गया?" "इस यति को मारने की इच्छा करने से इसकी यह दशा हुई है' ऐसा विचार करके उसके सेवक गुरुदेव को प्रणाम करके बोले-“हे स्वामी! आपकी अपार महिमा को न जानते हुए इन कुबुद्धि से युक्त हमारे स्वामी ने जो आपका अपराध किया है, उसे क्षमा करें। हे विश्वपूज्य! हृदय को अन्धा बनानेवाली जिसकी कुबुद्धि स्वेच्छा से विकास को प्राप्त हुई है, वैसा मनुष्य अगर सन्मार्ग से स्खलना को प्राप्त हो, तो इसमें उसका क्या दोष? क्योंकि वैसा मनुष्य तो कुमार्गगामी ही होता है। अतः हे मुनीश्वर! कृपा करके हमारे राजा को छोड़ दें, क्योंकि महात्मा तो महा अपराध को भी माफ कर देनेवाले होते हैं।"

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