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346/श्री दान-प्रदीप
जरुरत कहां होती है? पर मैं तुम्हें इतना ही कहना चाहता हूं कि तुम इस दुष्ट आचरण से युक्त कुबुद्धि का त्याग करो, क्योंकि रस्सी के समान यह कुबुद्धि जीव को घसीटकर नरक रूपी कुएँ में डाल देती है। हे राजा! महा ऐश्वर्य को भोगते हुए भी तुम अत्यन्त निन्दनीय लूटपाट आदि पापकर्म क्यों व्यर्थ ही करते हो? धन में लुब्ध जो पुरुष कूटकपट से अन्यों पर द्रोह करते हैं, वे अपनी ही आत्मा को दुःख पहुँचाकर स्वयं पर ही द्रोह करने का कार्य करते हैं। जो मूढ़ अधम पुरुष अन्य पर द्रोह करके समृद्धि प्राप्त करते हैं, वे अपने ही घर को जलाकर प्रकाश करने की इच्छा करते हैं। अन्य का बंधन, वध, द्रोहादि तथा द्रव्य हरण करने से प्राणी परभव में जघन्य से दस गुणा फल प्राप्त करता है। अन्य के घर में दास बनना अच्छा है, चिरकाल तक निर्धन बने रहना अच्छा है, पर अन्य के साथ द्रोह करके प्राप्त हुआ विशाल वैभव अच्छा नहीं है। जो स्वयं को अच्छा लगे, अन्यों के साथ भी वैसा ही करना चाहिए। यही अहिंसामय धर्म का रहस्य है-ऐसा पण्डित पुरुष कहते हैं। अतः ऐसे कुमार्ग का दूर से ही त्याग करके मित्र के समान सुखकारी धर्म को ही अंगीकार करना चाहिए।"
इस प्रकार कतक के चूर्ण के समान गुरु के उपदेश के द्वारा पाप रूपी कादव का नाश होने से पल्लीपति का मन रूपी जल सर्वथा प्रकार से शुद्ध हो गया। फिर प्रतिबोध को प्राप्त पल्लीपति ने निरपराध त्रस जीव की हिंसा तथा स्थूल चोरी का जीवनभर के लिए त्याग किया। मार्ग से भ्रष्ट हुआ मनुष्य जैसे मार्ग को प्राप्त करता है, वैसे ही सम्यग् धर्म को पाकर उस पल्लीपति ने हर्षांकुरों से पुष्ट हुए मन के द्वारा गुरुदेव को विनति की-“हे प्रभु! मुझ पर कृपा करके अपने चरण-कमलों के द्वारा मेरी पल्ली को पवित्र कीजिए। क्या चन्द्रमा अपनी किरणों के द्वारा नीच घरों में प्रकाश नहीं करता?"
इस प्रकार उसके आग्रह से गुरु महाराज परिवार सहित उसकी पल्ली में पधारे, क्योंकि महात्मा कभी भी किसी की भी प्रार्थना का भंग नहीं करते। फिर पल्लीपति ने अपनी भक्ति के पुंज के समान उज्ज्वल स्वर्ण से भरा हुआ थाल गुरुदेव के चरणों में भेंट के रूप में रखा और हाथ जोड़कर विज्ञप्ति की "हे प्रभु! आपकी कृपा से ही मैंने सन्मार्ग प्राप्त किया है। अतः कृपा करके इस गुरुदक्षिणा को स्वीकार कीजिए।"
यह सुनकर श्रेष्ठ मुनिराज ने कहा-"जैनधर्म सर्वथा संगरहित है। अतः ब्राह्मणों की तरह हमलोग गुरुदक्षिणा ग्रहण नहीं करते। न ही हम स्वर्णादि द्रव्य ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि छाया और धूप की तरह द्रव्य और चारित्र परस्पर विरोधी है। साधु को वित्त का दान देना सत्पुरुषों के लिए भी उचित नहीं है, क्योंकि वित्त के द्वारा व्रत का नाश करनेवाले काम-क्रोधादि वृद्धि को प्राप्त करते हैं। साधु के संयम योग का उपकार हो-इसलिए उसे शुद्ध आहार और वस्त्रादि देना चाहिए।