________________
316/ श्री दान- प्रदीप
पर ओढ़ने के वस्त्रों में एक सूती वस्त्र, एक ऊन की कांबली और एक ऊन की कांबली के भीतर रखा जानेवाला सूती वस्त्र - ये तीन ), रजोहरण और मुहपत्ती - ये बारह प्रकार की उपधि तो जिनकल्पी साधुओं को हो सकती है। उपलक्षण से जिनकल्पी साधुओं को दो से नौ प्रकार की अल्प उपधि भी हो सकती है । मात्रक (अन्नादि आहार के निमित्त खास उपकरण विशेष) और चोलपट्टा-ये दो पूर्वोक्त बारह में मिलाने पर चौदह प्रकार की उपाधि साधुओं के होती है। साध्वियों के पच्चीस प्रकार की उपधि होती है। इसके उपरान्त औपग्रहिक उपधि जाननी चाहिए।
साधुओं के सचेलक और अचेलक के नाम से दो प्रकार के धर्म होते हैं। मध्य के 22 तीर्थंकरों के समय सचेलक धर्म है। सचेल शब्द में सह और चेल- ये दो शब्द रहे हुए हैं। सह शब्द इस जगह प्रमाण और वर्ण आदि के अनियम रूप विशेष का ज्ञान कराता है। अर्थात् वस्त्र की अमुक लम्बाई या अमुक रंगादि होना चाहिए - इसका कोई नियम नहीं है। लोक में भी अमुक मनुष्य सरूप अर्थात् स्वरूपवान है - ऐसा कहा जाता है। अतः यहां स का अर्थ स्तुति-प्रशंसायुक्त है। मध्यम जिनेश्वरों के समय में जीव ऋजु -प्राज्ञ कहे हैं। अतः उन्हें सर्व प्रकार के शुद्ध - प्रासुक वस्त्र की अनुज्ञा थी ।
प्रथम व अन्तिम तीर्थंकर के समय में अचेल धर्म कहा गया है। यहां अ और चेल-ये दो शब्द हैं। इसमें अ का अर्थ सर्वथा प्रकार से वस्त्र का निषेध करने के रूप में नहीं है, बल्कि वस्त्र का अमुक प्रमाण, अमुक वर्णादि का ज्ञान कराता है। लोक में भी 'अनुदरा कन्या शोभित होती है' ऐसा कहा जाता है। यहां अन् और उदरा दो शब्द हैं। इसमें सर्वथा उदर से रहित कन्या शोभित होती है - यह अर्थ नहीं किया जा सकता । पर प्रमाणयुक्त अर्थ यानि कि 'छोटा उदर जिसका है, वह कन्या शोभित होती है - ऐसा अर्थ किया जाता है। प्रथम तीर्थंकर के समय में जीव ऋजु-जड़ थे और अभी अन्तिम तीर्थंकर के समय में जीव वक्र- जड़ हैं। अतः दोनों के तीर्थ में वस्त्रादिक का नियम है। इस विषय में श्रीउत्तराध्ययन सूत्र में श्रीपार्श्वनाथस्वामी के सन्तानीय शिष्य श्रीकेशीस्वामी तथा श्रीगौतमस्वामी के मध्य जो संवाद हुआ, वह इस प्रकार है
:
अचेलगो अ जो धम्मो, जो इमो संतरुत्तरो । देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महायसा । । 1 । । एगकज्जपवन्नाणं, विसेसे किंनुकारणं । लिंगे दुविहे मेहावी, कहं विपच्चओ न ते । | 2 || पच्चत्थं च लोअस्स, नाणाविहिविगप्पणं ।