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324 / श्री दान- प्रदीप
की खुशी से व्याप्त चित्तवाला सार्थवाह उसके पास आया और अपने अन्दर नहीं समाते हुए हर्ष को बाहर निकालता हो - इस प्रकार की वाणी में कहा - " अहो ! तेरी निर्लोभता भुवन में अद्भुत है, क्योंकि इतना दारिद्र्य होते हुए भी तुम्हारी बुद्धि में द्रोह उत्पन्न नहीं हुआ। तुम्हारा यह परोपकार किसके द्वारा प्रशंसनीय न होगा? कि जो परोपकार समग्र गुणों को कौर बनाकर निगल जानेवाले लोभ से भी न निगला गया। कदाचित् नदियों का पति समुद्र सूख जाय, अग्नि शीतल बन जाय, सूर्य पश्चिम में उगने लगे, मेरुपर्वत कम्पायमान बन जाय, पर सत्पुरुष प्राणान्त आने पर भी परवंचक नहीं बनते। हे गुणों के भण्डार ! तुम महापुरुषों अग्रिम श्रेणी में भी प्रथम स्थान को प्राप्त हुए हो । हे गुणीजनों के ईश्वर ! तुमने हमें यह बोरी ही नहीं लौटायी है, बल्कि उसके आधीन आजीविकावाले हम सब का जीवन भी तुमने लौटाया है। अतः मैं अगर तुम्हें अपना सर्वस्व भी दे दूं तो भी तुम्हारे उपकार से उऋण नहीं हो सकता । पर फिर भी अपने चित्त की शान्ति के लिए मैं तुम्हारा कुछ प्रत्युपकार करना चाहता हूं अन्यथा मेरी कृतज्ञता मूल से ही नाश को प्राप्त हो जायगी । अतः मुझे खुश करने के लिए तुम इन स्वर्णमोहरों का आधा भाग तुम ग्रहण करो। ऐसा करने से तुमने अपनी मित्रता मेरे साथ शोभित की - ऐसा मैं मानूंगा ।"
यह सुनकर ध्वजभुजंग ने बहुमानपूर्वक उससे कहा - " हे सार्थेश ! तुमने मुझे इतना सम्मान दिया, इससे ही मेरा अर्थ सिद्ध हो गया - ऐसा मैं मानता हूं । परोपकार से उत्पन्न हुए शाश्वत और अगण्य पुण्य को छोड़कर मात्र इस भव में ही रहनेवाले क्षणिक और असार धन को किसलिए ग्रहण करूं? अथवा तो मैंने तुम्हारा क्या उपकार किया है? जिससे कि तुम अपने आपको इस तरह देनदार बना रहे हो? यह स्वर्णमोहरों की बोरी तुम्हें तुम्हारे पुण्य से ही प्राप्त हुइ है। हे धन्य! मैंने तो मात्र तुम्हें बतायी है। मुझ नीच का इतना सम्मान करके क्या तुमने प्रत्युपकार नहीं किया? हे महाशय ! तुम मुझे कितना भी द्रव्य दोगे, पर मैं द्यूत का व्यसनी होने से हाथ में रहे हुए पानी की तरह धन मेरे पास टिकेगा नहीं । अतः मैं तुम्हारा थोड़ा भी धन ग्रहण नहीं करूंगा। अतः इसके बदले हमारी निर्मल प्रीति सदाकाल के लिए बनी रहे ।”
यह सुनकर दरिद्र होते हुए भी उसका इतना अधिक सन्तोष देखकर सार्थवाह अत्यन्त हर्षित हुआ। अत्यन्त मैत्रीभाव से युक्त होते हुए सार्थवाह ने उससे पूछा - "हे भद्र! तुम कौन हो? कहां रहते हो? तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ? किस कारण से तुम अत्यन्त दुःखी दिखायी देते हो?"
तब उसने अपना सारा वृत्तान्त शुरु से सुनाया । मित्रता होने के बाद झूठ बोलने का कोई कारण नहीं रहता। यह सब सुनकर निर्धन अवस्था में भी उसकी ऐसी निःस्पृहता देखकर सार्थवाह अत्यन्त आश्चर्यचकित हुआ। कुछ धन देने के लिए उसने फिर से प्रार्थना की—“हे मित्र! यह बोरी