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330/श्री दान-प्रदीप
गति-आश्रय है, उसी तरह मेरे प्राणों के लिए भी जिन्दगी-पर्यन्त वह एक ही पति और गति है।"
इस प्रकार कहकर उसने फिर से कहा-“हे सार्थपति! मुझे भक्तिपूर्वक एक विज्ञप्ति पत्रिका उसे भेजनी है। वह तुम जाते समय साथ में ले जाना। तुम अपने मुख से भी यह संदेश दे देना कि एक बार अपनी दासी की सेवा देखने के लिए मुझ पर कृपा करके अपने चरण-कमल के द्वारा इस पृथ्वी को पावन करें।" ___ इस प्रकार कहकर उस गणिका ने सार्थवाह को मनोहर वस्त्रादि देकर उसका अत्यधिक सत्कार किया, क्योंकि अगर पति के मित्र पर भक्ति हो, तो ही पति की सच्ची भक्ति कहलाती है। उसके बाद राजा को वे पाँचसौ हाथी देकर स्वयं को ऋणमुक्त बनाया और वाणी के बंधन रूपी समुद्र से तर गयी।
राजा ने उससे पूछा-"ये हाथी तुम्हें कहां से प्राप्त हुए?" उस गणिका ने कहा-“हे राजा! ध्वजभुजंग कुमार ने प्रीतिपूर्वक मुझे भेजे हैं।" यह सुनकर राजा अत्यन्त विस्मित हुआ, क्योंकि ऐसी उदारता किसे विस्मित न करेगी?
उसके बाद वह देवदत्ता बार-बार कुमार को याद करते हुए कामातुर हो गयी। प्रियमिलन के लिए उत्कण्ठित चकवी की तरह वह भी अपने प्रिय से मिलने के लिए आतुर हो गयी। कुमार के बिना उसे वस्त्र, ताम्बूल, स्नान, विलेपन, गीत, संगीतादि कुछ भी आनन्द नहीं देता था। वह उस कुमार के बिना अपने धन से भरे हुए महल को बिल्कुल सूना मानती थी। इतना ही नही, वह सम्पूर्ण नगर को भी शून्यवत् मानने लगी।
हे सभ्यों! परोपकार का प्रभाव तो देखो कि उस वेश्या ने कभी कुमार को देखा भी नहीं था, पर फिर भी उस पर कितना विपुल स्नेह धारण किया। फिर जब सार्थवाह वहां से रवाना हुआ, तब उसने मानो अपने विवाह की कुमकुमपत्रिका ही हो-इस प्रकार हर्षपूर्वक लेख लिखकर भेजा। उस लेख को लेकर वह भामह सार्थपति क्रयविक्रय से कृतार्थ होकर वहां से रवाना हुआ। अनुक्रम से वह उज्जयिनी पहुंचा। वह ध्वजभुजंग से प्रीतिपूर्वक मिला। देवदत्ता को हाथी देने का आद्योपान्त विवरण सुनाया। फिर उसने कहा-“हे मित्र! तेरे उपकार की मनोहर कपूर के द्वारा उसका मन चारों तरफ से इतना अधिक वासित बना है कि जिससे कि राजा और अन्य अनेक धनवानों के द्वारा वृद्धि प्राप्त करवायी हुई उसकी समग्र वासना मूल सहित दूर हो गयी है। तेरे ऊपर उत्पन्न हुई अद्भुत प्रीति के कारण उसने मुझे अत्यधिक मूल्यवान वस्त्रादि भेंट करके मेरा महा–सम्मान किया है। तूं तेरे नेत्रों के द्वारा पवित्र उन्हें पवित्र कर अर्थात् देख । वह गणिका अपने हृदय में तेरे समागम की अत्यन्त उत्कण्ठा धारण करती है। अतः उस सुमुखी ने हर्ष से अपने हाथ से लेख लिखकर तुझे भेजा है।"