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329/ श्री दान-प्रदीप
इस प्रकार कहकर राजा ने उसे देनदार होने से अपनी वाणी के बंधन में बांधकर अपने आधीन कर ली। उसके बाद दूर न कर सकने योग्य पराधीनता को वह सत्यव्रतयुक्त गणिका निरन्तर शल्य की तरह वहन करती हुई दिन-रात खेद को प्राप्त करने लगी। इस अवसर पर उसके पुण्योदय से सार्थवाह वहां आया और उसको पाँचसौ हाथी प्रदान करते हुए कहा-"ध्वजभुजंग ने तुम्हारे गुणों का श्रवण करके चित्त में हर्षित होते हुए इन हाथियों को भेंट के रूप में तुम्हारे पास भेजा है।"
___ उस समय गणिका उन हाथियों को पाकर इतनी अधिक हर्षित हुई कि उस हर्ष के सामने मेरुपर्वत को भी तृण के समान मानने लगी और समुद्र को भी लघु मानने लगी। अवसर पर प्राप्त होनेवाला चुल्लु-भर पानी भी अत्यन्त प्रीति को उत्पन्न करता है। तो फिर सैकड़ों हाथी समय पर प्राप्त होने पर तो कितना हर्ष होगा? उसके बाद गणिका के नेत्र हर्ष के आवेश के वश से विकस्वर हो गये।
उसने सार्थवाह से पूछा-"वह कुमार कौन है और कैसा है?"
तब सार्थवाह ने उस गणिका को उसकी जाति, दरिद्र स्थिति, द्यूत का व्यसन और सर्व अद्भुत गुणादि वृत्तान्त अच्छी तरह विस्तार से बताये।
फिर वेश्या ने पूछा-"इतने अधिक हाथी उसे कहां से प्राप्त हुए?"
ऐसा पूछने पर वह सारी घटना भी बतायी। यह सुनकर उसकी उदारता आदि अद्भुत गुण कर्ण के अतिथि होने से उस श्रेष्ठ गणिका का अंतःकरण अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने कहा-"राजा के साथ द्यूत में मैं पाँचसौ हाथी हार गयी थी। उस कर्ज के कारण राजा ने मुझे विशाल संकट में डाल रखा है। अतःअसीम चिन्तासागर में मैं डूबी हुई थी। उस कुमार ने हाथी भेजकर मुझे बहुत बड़ा सहारा दिया है। अहो! उसकी उदारता कैसी है? मैं नीच जाति की तथा परिचयरहित थी, पर फिर भी लीलामात्र में इतने अधिक हाथी भेज दिये। वडवानल की तरह मात्र अपना ही पेट भरनेवाले लोग दुनिया में कौन नहीं है? पर मेघ के समान वह एक कुमार एकमात्र परोपकार करने में तत्पर है। शेषनाग पृथ्वी के भार को धारण करता है-यह मात्र कहावत ही है। पर सही दृष्टि से देखा जाय, तो ऐसे मैत्रीभाव से युक्त महापुरुष ही पृथ्वी का भार उठाते हैं। अहो! जिसको कभी देखा ही नहीं, उसने मुझ पर इतना बड़ा उपकार कैसे कर दिया? अथवा तो क्या बादलों से ढ़का हुआ सूर्य कमलिनी को विकसित नहीं करता? अतः कारण के बिना उपकार करनेवाले इस महापुरुष को अगर मैं अत्यधिक धन भी दूं, तो उसके इस उपकार से मैं उऋण नहीं हो सकती। अतः मैं उसे अपने प्राण ही सौंपती हूं क्योंकि सर्व दानों में प्राणदान ही उत्तमोत्तम है। जिस प्रकार लता के अंकुरों का उपकार करनेवाला वृक्ष ही एकमात्र