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340 / श्री दान- प्रदीप
थी। नगर में स्थान-स्थान पर बावड़ी, जलाशय, तालाबादि बने हुए थे, जो मानो ध्वजभुजंग की कीर्ति रूपी लता को सींचने के लिए बनाये गये थे। जैसे मेघ जलधारा को बरसाता है, वैसे वह यक्ष अलग–अलग स्थानों में से ला- लाकर स्वर्ण, रत्न और मुक्ताफलों को बरसा रहा था। फिर उस नगर के अलग-अलग ग्रामों में रहनेवाले हजारों मनुष्यों को ला- लाकर अच्छे राजा की तरह उन्हें वहां बसाया । वनादि में रहनेवाले हिनहिनाते हुए हाथी, घोड़ों आदि को लाकर सेनापति की तरह उस यक्ष ने तत्काल चतुरंगिणी सेना इकट्ठी की । इस प्रकार उस पुर को बसाकर यक्ष ने हर्षपूर्वक उस पुर का नाम सुरपुर के रूप में प्रसिद्ध किया ।
उसके बाद उस यक्ष ने ध्वजभुजंग को राजसभा - मण्डप में स्वर्ण के सिंहासन पर बिठाया। उस समय उदयाचल पर्वत पर आरूढ़ हुए सूर्य की तरह वह शोभित होने लगा । उसके मस्तक पर धारण किया हुआ, पूर्णिमा के चन्द्र के गर्व को सर्व प्रकार से नष्ट करनेवाली लक्ष्मी से युक्त मूर्तिमान कीर्ति के समूह के समान वह छत्र से शोभित होता था। उसके सर्वांग में धारण किये गये अलंकारों की कांति से सर्व दिशाओं के मुख दैदीप्यमान हो रहे थे। दोनों कुण्डलों से उत्पन्न हुई कान्ति के दो प्रवाह हों - इस प्रकार दो चामरों के द्वारा उसे दोनों ओर से वींजा जा रहा था। उस समय उस यक्ष के द्वारा स्थापित मंत्री, सामन्त और महाजनों आदि ने देव की आज्ञा से रजतमय व स्वर्णमय कलशों के द्वारा उसका राज्याभिषेक किया ।
'इसी राजा की सेवा करो - इस प्रकार अन्य राजाओं को बताते हों-ऐसे वाद्यन्त्रों के शब्दों द्वारा सम्पूर्ण आकाश पूरित हो गया । अन्य कुराज्य रूपी विष से दुःखी हुए मनुष्यों को अमृतवृष्टि के समान स्नेहभरी अपनी दृष्टि से वह नगर जीवित बना रहा था। इस प्रकार उस यक्ष ने विशाल उत्सवपूर्वक उस पुर के राज्य पर ध्वजभुजंग को स्थापित किया । अहो ! पुण्य का प्रभाव कितना अद्भुत है !"
'मैंने मित्रता के कारण इस महात्मा ध्वजभुजंग को राज्य प्रदान किया है, उस पर कोई मूढ़ मनुष्य द्रोह करेगा, तो मैं उसके प्राणों का घात करके उस पर द्रोह करूंगा - इस प्रकार की उद्घोषणा करके यक्ष अदृश्य हो गया। फिर ध्वजभुजंग राजा राज्य का पालन करने
लगा ।
फिर राजा को अपनी माता को नमन करने की इच्छा बलवती हुई, क्योंकि प्राप्त हुई लक्ष्मी स्वजन और परजन को दिखाने से सफल होती है। अतः चतुरंगिणी सैन्य के समूह के द्वारा दो प्रकार के भूभृतों (राजा व पर्वत) को कम्पित बनाते हुए इन्द्र के साथ स्पर्द्धा करनेवाली विशाल समृद्धि के साथ वह शालिग्राम में गया। वहां पुरजनों सहित ग्राम के स्वामी ने भी विस्मयसहित उसे प्रणाम किया। उस राजा ने प्रीतिपूर्वक अपनी माता को प्रणाम किया । सूर्य की तरह निर्मल और अद्भुत कांति को धारण करनेवाले उस पुत्र को देखकर माता कमलिनी