Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 352
________________ 341/श्री दान-प्रदीप के समान अत्यन्त उल्लास को प्राप्त हुई। उस ध्वजमुजंग राजा ने वृद्धिप्राप्त अपनी समृद्धि के द्वारा केवल अपनी माता को ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण लोगों को भी विस्मित किया। उसने अपनी माता को रसभरे मीठे वचनों के द्वारा ही नहीं, बल्कि आदरपूर्वक अनुपम वस्त्रों व आभूषणें के द्वारा भी आनन्दित किया। उसके स्वजन तत्काल फलयुक्त वृक्ष पर पक्षियों की तरह उसके आस-पास मंडराने लगे। फिर अपनी माता को हस्ती पर आरूढ़ करके तोरणों से शोभित सुरपुर में ले गया। देवप्रदत्त राज्य के अधिपति के बारे में सुनकर कौन-कौनसे राजा हाथ में भेंट लेकर उसके सामने नहीं झुके? विविध राजाओं द्वारा प्रदत्त विशाल भेंटों के द्वारा उसकी समृद्धि अन्य नदियों के द्वारा गंगा नदी की तरह वृद्धि को प्राप्त हुई। अन्य-अन्य राजाओं ने अपनी-अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ रचाया। बड़े व्यक्तियों के साथ कौन संबंध नहीं बनाना चाहेगा? प्रीतिपूर्वक अंतःपुर की स्त्रियों के द्वारा सेवा करवाते हुए भी ध्वजभुजंग राजा जैसे मालती के पुष्प को देखकर भ्रमर मंडराता है, उसी प्रकार देवदत्ता को स्मरण करता था। अतः उसने अपने विशेष चरों को उसे लिवा लाने के लिए हर्षपूर्वक उस गणिका के ग्राम में भेजा। विवेकी पुरुषों की प्रतिज्ञा कमी असत्य नहीं होती। वे चर कन्यकुब्ज ग्राम में पहुँचे। गणिका ने उनका हर्षपूर्वक स्वागत किया। उन्होंने भी गणिका से कहा-"ध्वजमुजंग को साम्राज्य प्राप्त हुआ है, अतः वे आपको बुला रहे हैं।" स्वामी की अद्भुत संपत्ति का श्रवण करके उसे भी अत्यन्त आनन्द हुआ। प्रिय को संपत्ति प्राप्त होने पर कौन हर्षित नहीं होता? उसने भी हृदय में हर्षित होते हुए विचार किया-"अहो! उनकी कैसी कृतज्ञता! कि इतनी विशाल सम्पत्ति प्राप्त होने के बावजूद भी उन्होंने तुरन्त मुझे याद किया। भक्ति के द्वारा झुके हुए राजाओं द्वारा अपनी कन्याओं का उनके साथ विवाह करने के बावजूद भी मुझ पर असीम प्रेम रखते हुए मुझे बुलाने के लिए अपने चर भेजे हैं। अतः उनकी सेवा से रहित मेरा एक दिन भी बकरी के गले के आँचल की तरह व्यर्थ है-ऐसा मेरा मन मानता है।" उसके बाद देवदत्ता ने तुरन्त राजा की आज्ञा ली और अपने परिवार व मिल्कत को लेकर उनके साथ चली। शीघ्र ही प्रयाण के द्वारा वह थोड़े ही दिनों में सुरपुर पहुँच गयी। दिव्य किले से युक्त पति की पुरलक्ष्मी को देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हुई। हृदय में न समाता हुआ प्रेम का पूर ही हो-इस प्रकार अपनी सारी मिल्कियत को भेंट स्वरूप प्रदान करते हुए वह राजा घ्वजभुजंग के चरणों में झुकी। विशेष रूप से हर्षित होते हुए राजा ने सरस आलाप के द्वारा उसे प्रसन्न किया। फिर उत्कृष्ट गुणों के समूह रूप उसे पट्टरानी बनाया, क्योंकि प्रमाण रहित अर्थात् असाधारण मान को प्रदान करनेवाला गुणसमूह ही होता है, कुलादि नहीं।

Loading...

Page Navigation
1 ... 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416