Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 329
________________ 318/श्री दान-प्रदीप कि जो जिनेश्वरों द्वारा दीक्षा लिये जाने के समय उनके खन्धे पर देवदूष्य वस्त्र डालते हैं। उस वस्त्र को प्रदान करते हुए उनको जिनेश्वर भी मान्य करते हैं। मुनि को शुद्ध वस्त्र देनेवाला बुद्धिमान, वास्तविक रीति से देखा जाय, तो चारित्र लक्ष्मी रूपी कुमारिका को ही पहेरामणी करवाते हैं-ऐसा समझना चाहिए। पहेरामणी करने से प्रसन्न हुई, मोक्ष को प्रदान करनेवाली वह चारित्रलक्ष्मी रूपी कुमारिका उस पुरुष को उसी भव में अथवा अगले भव में वरण करती है। जो पुरुष मुनीन्द्र को शुद्ध भाव से वस्त्र का दान देता है, वह ध्वजभुजंग की तरह विशाल संपत्ति को प्राप्त करता है। उसकी कथा इस प्रकार है - इस भरतक्षेत्र में कल्याण का निवास स्थान, दारिद्र्य को निरन्तर प्रवासी बनानेवाला और पृथ्वी का अलंकारभूत श्रीमालव नामक देश है। वह देश मा अर्थात् लक्ष्मी और उसका लव अर्थात् लेश-ऐसा नाम निरन्तर धारण करते हुए भी पृथ्वी पर लक्ष्मी की खान के रूप में प्रसिद्ध था। यह आश्चर्य की ही बात थी। उस देश मे उज्जयिनी नामक नगरी है। उसने आस-पास की सर्व नगरियों को अपनी लक्ष्मी के द्वारा जीतकर अपना नाम सार्थक बनाया है। उस नगरी में रहे हुए सत्पुरुष अपनी आत्मा का अत्यन्त हित करने की इच्छा से अर्थ अर्थात् धन को सात क्षेत्रों में व्यय करके और काम अर्थात् पाँच इन्द्रियों के विषय को पूजा, उत्सवादि धर्मकार्यों में भोगकर पवित्र करते थे। उस नगरी के समीप शालिग्राम नामक नगर था। वह धन-धान्यादि ऋद्धि से परिपूर्ण था और संपत्ति में उसी नगरी के समान था। उस ग्राम में रहनेवाले लोग दूध, दही, अति स्निग्ध भोजन और शेरडी के रसादि उत्तम वस्तुओं को तृप्ति होने तक खाकर अमृत का भी तिरस्कार कर देते थे। ___ उस ग्राम में क्षत्रियों के मुकुट के समान, अतुल पराक्रमी और अपने वंश रूपी गुफा में सिंह के समान सिंहपाल नामक सुभट रहता था। उसके यशोदेवी नामक भार्या थी। उसमें रूपलक्ष्मी के साथ शीलव्रत, लज्जा के साथ दाक्षिण्य, मधुर वाणी के साथ दान, सरलता के साथ गम्भीरता और विद्या के साथ विनय-ये सभी गुण मानो परस्पर अत्यन्त प्रीतियुक्त होकर रहे हुए थे। उन दोनों ने त्रिवर्ग के साधन द्वारा सुन्दर और सुख के द्वारा मनोहर कितने ही वर्ष दिवसों के समान व्यतीत किये। एक बार उस यशोदेवी ने दिव्य स्वप्न के साथ गर्भ को पृथ्वी के निधान की तरह धारण किया। ऋतु के अनुकूल और शरीर को हितकारक आहार तथा विहार करने में तत्पर यशोदेवी मानो अपना दूसरा जीवन हो-इस प्रकार से उस गर्भ का पालन करने लगी। पर उसे गर्भ के प्रभाव से शुरु–शुरु में पुण्य का नाश करनेवाले हिंसा, असत्य और चोरी संबंधी कितने ही दुष्ट दोहद उत्पन्न हुए। पर उन दोहदों को पूर्ण करने में उसका मन जरा भी प्रवर्तित

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