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220/श्री दान-प्रदीप
कारण है'-ऐसा सभी अपने-अपने मन में निश्चय करें-इसी कारण से हे देवी! मैंने देव की तरह विद्या के प्रभाव से इन सभी महलादि की रचना की है।"
यह सुनकर मदनमंजरी उसकी अद्भुत समृद्धि को देखने लगी और प्रभातकाल की प्रभा के साथ ही स्वयं भी हर्ष से उल्लास को प्राप्त हुई। सभी लोग इन दोनों की पुण्य की समृद्धि को प्रकट रूप से देखो'-इस प्रकार मानो इच्छा करते हुए सूर्य ने चारों तरफ प्रकाश का विस्तार किया। फिर मानो स्वर्ग से विमान उतरा हो-ऐसे उस महल को देखने के लिए मंत्र से आकर्षित किये हुए के समान पुरजन महल के चारों तरफ इकट्ठे हो गये। "अहो! धर्म का कैसा माहात्य है!"-मनुष्यों के इन शब्दों का श्रवण करके तथा सर्व वृत्तान्त अपने सेवकों द्वारा ज्ञातकर जितारि राजा भी शीघ्रता से वहां आया। उस समय महल के दरवाजे पर रही हुई पुतलियों ने उसका आचमन करवाया। आगे चलते हुए प्रत्येक द्वार पर रहे हुए प्रतिहारियों ने उसे चढ़ने का मार्ग बताया। उस महल के सर्व सौन्दर्य को बिना किसी क्रम के एक साथ देखने की इच्छा करता हो-उस प्रकार से रत्नों की दीवारों में प्रतिबिम्ब पड़ने से राजा ने अनेक रूप धारण किये। यह देख राजा का मन तर्क-वितर्क के संबंध से व्याकुल हो गया। इस प्रकार जितारि राजा कैलाश के समान ऊँचे उस महल में ऊपर चढ़ा। उसी समय आकाशमार्ग से वाद्यन्त्रों के शब्दों द्वारा दिशाओं के मुख को वाचाल करते हुए उस विद्याधर राजा का मंत्री सैन्य-समूह के साथ वहां आया। उसने तथा अन्य सभी विद्याधरों ने अपने स्वामी को प्रणाम करते हुए उसी प्रकार राजा की सेवा करने लगे, जिस प्रकार देव इन्द्र की सेवा करते हैं। इस प्रकार के जामाता को देखकर ससुर (राजा) आश्चर्यान्वित हो गया।
उस समय बन्दीजन मधुर स्वर में कहने लगे-"ये वैताढ्य के स्वामित्व से शोभित श्रीकनकरथ राजा अपने पुण्यों के परिपाक से ही जितारि राजा की पुत्री के पति बने हैं।"
फिर जामाता और पुत्री ने खड़े होकर जितारि राजा को प्रणाम किया। राजा ने भी उन दोनों का अभिवादन किया। पण्डित पुरुष समय के ज्ञाता होते हैं। उसके बाद रानी धारिणी आदि सर्व परिवार भी वहां आया। उन सभी को विद्याधर राजा ने यथायोग्य आसनों पर बिठाया। जितारि राजा ने भी अपने आसन पर बैठकर मन में लज्जित होते हुए पुत्री को अपने पास बिठाया और कहने लगा-"धर्म के सम्यग् ज्ञान से युक्त हे पुत्री! मेरे दुष्ट आचरण को तूं क्षमा कर । तेरे पुण्य का ऐसा प्रभाव मैंने नहीं जाना था। तेरे हितकारी व सत्य वचन किसके द्वारा ग्राह्य नहीं है? पर अहंकार के कारण ही मैंने उस समय तेरे वचनों की अवगणना की थी। तुमने आज मुझे अपने पुण्य की ही महिमा नहीं दिखायी, बल्कि धर्म का फल प्रत्यक्ष दिखाकर स्पष्ट रूप से सम्यग् धर्म का पाठ भी मुझे पढ़ाया है। तेरे भाग्य की