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266/श्री दान-प्रदीप
नगरादि को कुम्भार के चक्र पर चढ़ाये गये की तरह घूमता हुआ देखने लगा। प्रचण्ड वेग से जाती हुई नाव दो घड़ी में समुद्र के पूर्वी किनारे में पहुँचकर अपने आप स्थिर हो गयी। राजा ने राहत की सांस ली और नाव से उतरकर वन में जाकर आराम करने लगा।
तभी अकस्मात् वहां एक पुरुष आया। उसने राजा को प्रणाम किया और कहा-"स्वर्ग के समान खुशहाल यह पूर्वी देश है। उस देश की अलंकार रूप तथा देवनगरी के समान यह रत्नपुरी नामक नगरी है। इसमें सभी शत्रुओं को त्रस्त करनेवाला रत्नसेन नामक राजा राज्य करता है। वह पूर्व दिशा के समस्त साम्राज्य का उपभोग करता है। वह बीस करोड़ गाँवों का स्वामी है, 11 लाख हाथियों का अधिपति है, दस लाख घोड़ों का स्वामी है, बीस लाख विशाल रथों का अधीश्वर है तथा बीस करोड़ पदातियों को दृष्टि मात्र से आज्ञा देने में समर्थ है। पर उसके पुत्र न होने से वह अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को शून्य मानता था। उस राजा के अपनी कान्ति के द्वारा कनक (स्वर्ण) का पराभव करनेवाली कनकावली नामक प्रिया है।
एक बार उस रानी ने अद्भुत सौभाग्य से युक्त दो कन्याओं को जन्म दिया। उनमें ज्येष्ठ पुत्री का नाम कनकमंजरी और कनिष्ठ पुत्री का नाम गुणमंजरी है। अनुक्रम से यौवन रूपी मेघ ने उनके रूपवृक्ष को वर्धित किया। पर पूर्वभव के अशुभ कर्मों के उदय से बड़ी कन्या का शरीर झरते कोढ़ से दूषित हो गया और छोटी कन्या अन्धता का शिकार हो गयी। राजा ने वैद्यों के समूह को बुला-बुलाकर उन कन्याओं के रोगों के अपार उपाय करवाये, पर औषध, भेषज, चूर्ण, अंजन, मंत्र या तंत्र के द्वारा उनको लेशमात्र भी गुण नहीं हुआ। उनके शरीर में दुःसह वेदना होती है, जो लेश मात्र भी शांत नहीं होती। कुकर्म के विपाक को दूर करने में भला कौन समर्थ है? अतः घबराकर वे दोनों कन्याएँ मृत्यु को अंगीकार करने के लिए तैयार हो गयीं। प्रायः करके स्त्रियाँ विपत्ति में मरण को ही शरण बनाती हैं। उन कन्याओं के माता-पिता भी उनके दुःख से दुःखी होकर उन्हीं के साथ मरण स्वीकार करने को तैयार हो गये। मोह प्राणियों को अन्धा बना देता है। तब मंत्रियों ने राज्य की अधिष्ठाता देवी की आराधना की। तब देवी ने आकाश में स्थित रहते हुए सभी लोगों को सुनाते हुए कहा कि नाव में बैठे हुए पाटलिपुत्र नगर के रत्नपाल राजा को मैं प्रातःकाल समुद्र के किनारे लेकर आऊँगी। वह राजा दोनों कन्याओं को स्वस्थ बनायेगा।
ऐसा कहकर देवी अदृश्य हो गयी। उसकी वाणी सुनकर राजादि सभी आनन्दित हुए। हे देव! देवी की सहायता से आपका यहां आगमन हुआ है। यहां से आपका नगर पाँचसौ योजन दूर है। हे देव! मैं अपने राजा की आज्ञा से शीघ्रतापूर्वक आपके पास आया हूं। राजा