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277/ श्री दान-प्रदीप
प्रकार उसे राजा का दण्ड याद नहीं आया।
एक बार नगर के आरक्षकों ने उसको पकड़ लिया और पूछा-"लोगों का चुराया हुआ धन कहां है? बता, नहीं तो तेरा मरण पक्का है।"
तब उस चोर ने चुराया हुआ माल जहां-जहां बेचा था, वह सभी बता दिया। लोगों ने भी अपने-2 माल को पहचाना और वापस ले लिया। उसके बाद आरक्षकों ने तिरस्कारपूर्वक चोर से कहा-"अरे! राजखजाने से चुराये हुए रत्न कहां है? उन्हें क्यों छिपाता है?"
तब उसने स्पष्ट रूप से कहा-"उन रत्नों को पहले मैंने धनदत्त को दिखाया था, पर पता नहीं किस कारण से उसने नहीं खरीदे। अतः जब मैंने उन रत्नों को सिद्धदत्त को दिखाया, तो उसने एकान्त में मुझे दस हजार द्रव्य देकर खरीद लिया।"
यह वृत्तान्त सुनकर कोतवाल उसे राजा के पास ले गया और सारी हकीकत बतायी। यह सुनकर राजा ने सिद्धदत्त के पास से न केवल रत्न, बल्कि उसका सर्वस्व ले लिया, क्योंकि राजा का क्रोध भयंकर होता है। उसके बाद सिद्धदत्त दारिद्र्य के द्वारा अत्यन्त पराभव को प्राप्त हुआ। अविवेक के कारण इसलोक में क्या-क्या दुःख प्राप्त नहीं होता? अतः दुःखगर्भित वैराग्य के कारण उसने तापस दीक्षा ग्रहण की। अविवेकी जन परलोक के लिए अच्छा साधन ग्रहण नहीं कर सकते।
___फिर राजा ने धनदत्त को बुलाकर पूछा-"तुमने महालाभ होते हुए भी वे रत्न क्यों नहीं खरीदे?"
तब धनदत्त ने हकीकत बताते हुए कहा-“हे स्वामी! वह मनुष्य एकान्त में आकर मुझे रत्न बता रहा था। उसकी बातों से मुझे शंका हो रही थी। अत्यल्प मूल्य बताने के कारण वे रत्न मुझे चुराये हुए लगे। अतः मैंने नहीं खरीदे।"
यह सुनकर राजा ने विचार किया-"अहो! इसकी बुद्धि कितनी शुद्ध है! अहो! इसकी व्रत की दृढ़ता सराहनीय है।"
इस प्रकार उसकी प्रशंसा करके राजा ने उसे अत्यधिक सन्मान दिया । व्यसनादि में आसक्ति-रहित बनते हुए और विवेकयुक्त व्यापार करते हुए धनदत्त की लक्ष्मी मेघ के द्वारा लता की तरह निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होने लगी।
एक बार रत्नवीर राजा की सभा में कोई धूर्त करोड़-करोड़ मूल्यवाले पाँच रत्न लेकर आया। उसने सभासदों से कहा-“समुद्र में कादव और पानी में से क्या ज्यादा है और क्या कम है? इस विषय में जो मुझे सन्तोषजनक उत्तर देगा, उसे मैं ये आश्चर्यकारी पाँचों रत्न दे दूंगा।"