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284/श्री दान-प्रदीप
जो ग्लान की परिचर्या करता है, वह मेरे दर्शन को अंगीकार करता है।"
निर्मल अंतःकरण के द्वारा मुनि की तुच्छ चिकित्सा भी की हो, तो भी वह तिर्यंचों को भी आश्चर्यकारक सम्पत्ति प्रदान करती है।
पहले द्वारिका नगरी में जिसका पूर्वभव वैतरणी वैद्य का था, ऐसा एक वानर विंध्याचल पर्वत की अटवी में यूथ का नायक था। एकबार वहां एक मुनि पधारे। उनके पग में कांटा विंधा हुआ था। उन मुनि को देखकर वानर को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। अतः शुभ भावयुक्त उस वानर ने भक्तिपूर्वक विशल्या नामक औषधि के द्वारा मुनि को शल्यरहित बनाया। फिर समय आने पर सम्यग् प्रकार से अनशन करके मृत्यु प्राप्त करके मुनि की चिकित्सा के प्रभाव से सहस्रार देवलोक में अठारह सागरोपम की आयुष्यवाला देव बना।
जो पुरुष मुनियों को प्रासुक औषधि का दान करके उन्हें नीरुज बनाते हैं, वे धन्य पुरुष शीघ्र ही अपनी आत्मा को नीरुज स्थान (मोक्ष) में ले जाते हैं। प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभदेवस्वामी ने अपने पूर्वभव में वैद्य के रूप में मुनि के कोढ़ की चिकित्सा करने के लिए उस प्रकार के तेल का दान किया था, जिससे उन्होंने तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया था। उस वैद्य के मित्रों ने भी उसके उस कार्य में सहायता की थी, अतः उन्हें भी उत्कृष्ट लक्ष्मी प्राप्त हुई थी। एक वणिक ने उसी रोग के उपचार के लिए चन्दन और कम्बल दी थी, वह उसी भव में मोक्ष को प्राप्त हुआ। साधु को रोगरहित बनाने से वह साधु जो-जो धर्मक्रिया करता है, उस क्रिया के अनुमोदन का फल उस रोगरहित बनानेवाले पुरुष को अवश्य मिलता है। जो पुरुष अखण्डित भाव से यतियों को औषधि का दान देता है, वह अद्भुत और अखण्डित लक्ष्मी को प्राप्त करता है और खण्डित भाव से औषधि का दान देता है, तो खण्डित लक्ष्मी को प्राप्त करता है। इस विषय पर विविध प्रकार के आश्चर्यों से युक्त वृत्तान्त के द्वारा धनदत्त के बड़े भाई धनदेव की कथा सुनो
इस पृथ्वी पर अद्भुत संपत्ति का स्थान रूप सिंहलद्वीप नामक द्वीप है। समुद्र के जल में मानो स्वर्ग ही प्रतिबिम्बित हो रहा हो-ऐसा वह द्वीप प्रतीत होता था। उस द्वीप में शूरवीरता से शोभित और मनुष्यों में सिंह के समान सिंहलेश्वर नामक राजा राज्य करता था। वह हाथी के समान दुर्जय शत्रुओं का भी नाश करने में समर्थ था। विष्णु की लक्ष्मी और इन्द्र की इन्द्राणी के समान उसके सिंहलदेवी नामक रानी थी। श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार रुक्मिणी के द्वारा प्रद्युम्न को उत्पन्न किया था, उसी प्रकार राजा ने उस रानी के द्वारा तेजस्वी पुत्र को उत्पन्न किया। उगते हुए दूज के चन्द्र की तरह उस कुमार ने लीलामात्र में सभी कलाओं को सीख लिया। पर दोष के लेशमात्र संबंध को भी वह प्राप्त नहीं हुआ। जैसे सूर्य कमल को विकसित बनाता है, उसी प्रकार यौवन ने उसके रूप को अत्यधिक निखार दिया था। उसके