Book Title: Danpradip
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 310
________________ 299/ श्री दान-प्रदीप है। वैसे पुण्य का ही ऐसा फल दिखायी दे रहा है।" इस प्रकार विचार रूपी शाण पर बुद्धि को तीक्ष्ण करके कुमार ने अत्यन्त धैर्य धारण करके शेष रात्रि पूर्ण की। उसके बाद 'इस कुमार का किसने रक्षण किया?'-यह पृथ्वी पर देखने की इच्छा से मानो सूर्य उदयाचल पर्वत पर आरूढ़ हुआ। अन्धकार को दूर करता हुआ सूर्य मानो कुमार को कह रहा हो, सत्पुरुष कदम-कदम पर विपत्ति से युक्त सुख-संपत्ति को ही प्राप्त करते हैं। ऐसा लगता था कि कुमार के विघ्न दूर हो जाने से बन्दीजनों की तरह पक्षी कोलाहल के बहाने से जय-जय शब्द का उच्चारण कर रहे हों। कुमार की आपत्तियों का नष्ट जानकर आनन्दित होती हुई सर्व दिशाएँ मानो प्रसन्न मुखवाली बन गयी हों। उसके बाद देवस्मरणादि प्रातःकाल का कृत्य करके विशाल नेत्रयुक्त कुमार ने तपस्वियों की पर्णशाला में प्रवेश किया। वहां सुख के लिए धर्मकार्य करते हुए और तप द्वारा पवित्र हुए तपस्वियों को देखकर विस्मय को प्राप्त हुआ। उनमें कितने ही तपस्वी पद्मासन पर बैठे हुए थे, हरिण का चर्म उन्होंने पहना हुआ था। उनके नेत्र बन्द थे, उन्होंने इन्द्रियों को जीत लिया था। इस प्रकार वे परमात्मा का ध्यान कर रहे थे। कितने ही तपस्वी शरीर का हलन–चलन त्यागकर नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर लक्ष्मी की वरमाला के समान जपमाला को हाथ में लेकर जाप कर रहे थे। कितने ही दयालू तपस्वी कोमल निवार के समान धान्य को जल के द्वारा आर्द्र करके अपने बालकों के समान मृग के शावकों को आदरपूर्वक खिला रहे थे। कितने ही तपस्वी मानो प्रीति के पूर हों, इस प्रकार से तालाब से लाये हुए जल के द्वारा अपने बोये हुए वृक्षों को सींच रहे थे। कितने ही तपस्वी दुष्कर्म को जलाने की इच्छा से पंचाग्नि तप कर रहे थे। जिनधर्म के बिना विवेक कैसे हो सकता है? यह सभी देखते हुए कुमार तापसेश्वर के आश्रम में गया। वहां कल्याणकारी भक्ति से युक्त कुमार ने कुलपति को हर्ष से नमस्कार किया। तब कुलपति ने उसे प्रीति रूपी अमृत की वृष्टि के समान आशीष प्रदान की। फिर आसन और आलापादि के द्वारा उसका सत्कार किया। सर्वांग से श्रेष्ठ लक्षणयुक्त और मनोहर आकृति देखकर हर्षित होते हुए तापसेश्वर ने विचार किया-"अल्पकाल के भीतर ही इसकी अत्यन्त प्रतिष्ठा, समृद्धि आदि होनेवाली है-ऐसा अष्टमी के चन्द्र की भाँति इसका कपाल स्पष्ट रूप से कहता है। राज्यलक्ष्मी रूपी कमलाक्षी के साथ क्रीड़ा करने के लिए इसका वक्षःस्थल स्वर्ण के चतुःशाल की शोभा का आश्रय करता है। धनुष और चक्रादि चिह्न इसके हस्तकमल को शोभित करते हैं। ये सभी चिह्न क्या इसके राजसंपत्ति प्राप्त करने की बात कहते हुए नहीं प्रतीत होते? यह समस्त राजाओं में अग्रसर होगा, ऐसा इसके पदतल में रही हुई ऊर्ध्वरेखा बताती है। यह आकृति के द्वारा सर्व गुणों का एकमात्र स्थान प्रतीत होता है। अत्यधिक प्रखर भाग्य से युक्त व्यक्ति को ही ऐसा

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