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310/श्री दान-प्रदीप
उदर को चीरना प्रारम्भ किया। तभी उस कुब्ज ने दैदीप्यमान कान्ति को धारण करके अपने पूर्व स्वरूप को प्राप्त किया और देवकुमार की लक्ष्मी से युक्त राजकुमार बन गया। अपने पति को पहचान करके उन स्त्रियों का मन विकस्वर हो गया। वे अत्यन्त हर्षित हुई और आत्मघात से विरमण हुई। सर्प ने भी तत्काल अपने पूर्व पुण्य के समूह के समान दैदीप्यमान और दिव्य आभूषणों से युक्त अपना दिव्य स्वरूप धारण किया। राजादि सर्व लोग उस कुमार और उस देव को देख-देखकर क्षणभर के लिए तो मानो निश्चल हो गये। फिर राजा ने आश्चर्यपूर्वक देव से पूछा-“हे देव! आप कौन हैं? कहां से आये हैं? यह कुमार कौन है?"
इस प्रकार पूछने पर उस श्रेष्ठ देव ने मधुर वाणी में बताया-“हे राजा! हमारा आश्चर्यकारक वृत्तान्त सुनो।
इसी भरतक्षेत्र में धनपुर नामक नगर है। उस नगर का नाम धन की समृद्धि के कारण पृथ्वी पर अन्वर्थपने को प्राप्त था। उस नगरी में समस्त पुण्यवंतों में अग्रणी धनंजय नामक श्रेष्ठी था। वह याचकजनों के दारिद्र्य रूपी वृक्ष का दाह करने से निश्चय ही धनंजय (अग्नि) रूप ही था। उसके मायारहित धनवती नामक प्रिया थी। उसका मन जैनधर्म रूपी सरोवर में मछली की तरह लीन था। उसके धनदेव और धनदत्त नामक दो पुत्र थे। वे जिनधर्म की निपुणता से शोभित थे। पिता की मृत्यु के उपरान्त घर और धर्म के कार्य में धुरन्धर दोनों भाइयों ने कितना ही समय प्रीतिपूर्वक व्यतीत किया। पर उनकी स्त्रियों में निरन्तर कलह होने लगा। स्त्रियों का कलह स्वाभाविक ही होता है। उनका रोज-रोज का कलह देखकर दोनों भाइयों ने धन का विभाग किया और अलग हो गये, क्योंकि बुद्धिमान मनुष्य समय के अनुकूल कार्य करनेवाले होते हैं। ऐसा करने से कृश हुई उनकी प्रीति दूज के चन्द्र की तरह दिन-दिन वृद्धि को प्राप्त होने लगी।
एक बार ग्रीष्म ऋतु में धनदेव के घर साधु पित्तज्वर से व्याप्त एक मुनि के लिए औषधि लेने आये। उन्हें आता देखकर मानो धनदेव स्वर्ग में रहे सुख को लेने की इच्छा करता हो-इस प्रकार से एकदम उठ खड़ा हुआ। विनय से झुकते हुए उसने भक्तिपूर्वक उन्हें वंदन किया। उनके चरण-कमल की रज के द्वारा अपने मस्तक पर तिलक किया। उसके बाद शुद्ध भाव से युक्त उसने उन्हें प्रासुक वस्त्र, भोजन और पानी के लिए निमन्त्रित किया। पात्रदान में किस श्रद्धालू का आदर नहीं होता? उन साधुओं ने उस समय उन सभी वस्तुओं का निषेध करते हुए औषधि की आवश्यकता बतायी। तब उसने अपने चित्त के समान उज्ज्वल दुध और शक्कर उनके सामने रखी और हर्षपूर्वक विकस्वर नेत्रों के द्वारा विज्ञप्ति की-“हे पूज्य! यह एषणीय है। मुझ पर अनुग्रह करके ग्रहण कीजिए। "
उस दूध को शुद्ध जानकर साधुओं ने संसार रूपी समुद्र में गिरे हुए उसे मानो तारने की