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300 / श्री दान- प्रदीप
महापुरुष जामाता के रूप में मिल सकता है ।"
इस प्रकार विचार करके हर्ष की तरंगों से विकसित नेत्रयुक्त उस कुलपति ने उससे कहा—“हे सत्पुरुष! आपकी आकृति ही आपकी उत्तमता को दर्शा रही है। हम वन में रहनेवाले तापस आप जैसे अतिथि की क्या उचित सेवा करें? फल से आजीविका का निर्वाह करनेवाले हम जैसों के पास मनोहर भोजन तक नहीं है । सर्व संग का त्याग कर देने के कारण हमारे पास रत्न-स्वर्णादि धन भी नहीं है । अतः मेरी यह कन्या ही आपके आतिथ्य के रूप में प्रस्तुत है।”
यह सुनकर राजपुत्र ने कहा - " आप ऐसा असंगत वचन क्यों कहते हैं? तापस व्रत में रही हुई यह कन्या पाणिग्रहण के लायक नहीं है । इसका पाणिग्रहण करनेवाला पुरुष व्रत का लोप करने से उत्पन्न हुए पाप और सुख का नाश करनेवाले महापाप का भागी बनेगा ।"
तब तापसेश्वर ने कहा - "इस कन्या ने तापस व्रत नहीं लिया है। इसका वृत्तान्त मैं शुरु बताता हूं। आप सुनें
समृद्धि के द्वारा स्वर्गनगरी से स्पर्द्धा करनेवाला पृथ्वीभूषण नामक नगर है। उसमें पवित्र चरित्र से युक्त मैं जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था । एक बार रात्रि के अन्तिम प्रहर में दो प्रकार से अर्थात् द्रव्य और भाव से जागृत होते हुए मैंने विचार किया कि मैं यह विशाल राज्य पूर्व के पुण्यों के कारण भोग रहा हूं। अतः जब तक मेरा यह पुण्य अवशेष है, तब तक मुझे नये पुण्यों का उपार्जन भी कर लेना चाहिए, क्योंकि मनुष्य के पास का सारा धन खत्म हो जाय, तो वह नवीन द्रव्य का उपार्जन नहीं कर सकता। इकट्ठा किया हुआ एक पुण्य भी परलोक में सुखकारक बनता है । शरीर बंधुजन और लक्ष्मी तो इस लोक में भी दुःखदायक है। पुण्यरहित प्राणी भाते से रहित मुसाफिर के परदेश में दुःखी होने के समान परलोक में दुःखी होता है । इस प्रकार विचार करके विशाल वैराग्य तरंगों से युक्त होकर मैंने प्रधानादि को अपने विचारों से अवगत करवाया और अपने पुत्र को राज्य पर स्थापित किया । उसके बाद मैंने प्रियासहित तापसी दीक्षा ग्रहण की। अनुक्रम से गुरु ने मुझे कुलपति के स्थान पर स्थापित कर दिया और स्वयं स्वर्गवासी हो गये। मेरी प्रिया मेरे राज्यकाल में ही गर्भवती हो गयी थी, पर व्रत में विघ्न आने के डर से उसने मुझसे यह बात छिपा ली थी । कालान्तर में शुभ समय पर जैसे पृथ्वी ने जानकी को जन्म दिया था, वैसे ही लावण्य के द्वारा पवित्र अंगयुक्त इस कन्या को जन्म दिया। इसके श्रेष्ठ लक्षणों और रूप के अतिशय को देखकर हर्षपूर्वक इसका नाम रूपवती रखा गया। अनुक्रम से यह जैसे-जैसे शरीर और सुन्दरता के द्वारा वृद्धि को प्राप्त होने लगी, वैसे-वैसे योग्य वर की प्राप्ति न होने से हमारी चिन्ता को भी यह वृद्धि प्राप्त कराने लगी। इस कन्या के उदय में आये हुए पूर्वपुण्यों की प्रेरणा से ही सर्व