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298 / श्री दान- प्रदीप
फलयुक्त बने। पर उस कुमार की मरण क्रिया किये बिना अभी उस प्रकार का व्यवहार करना उचित नहीं है, क्योंकि वैसा करने से न सुनने लायक लोकापवाद हमें सुनना पड़ेगा। अतः देशान्तर में जाकर उसकी मरण क्रिया करने के बाद हम अपनी इच्छानुसार प्रवर्त्तित होंगे। ऐसा करने से हमारी अपकीर्ति भी नहीं होगी।”
इस प्रकार कर्णों को सुख उपजानेवाले राजपुत्री के वचन सुनकर मंत्री अत्यधिक खुश हुआ। फिर खलासियों के द्वारा वाहन की गति को और तेज करवाया। थोड़ी दूर जाने के बाद ही दुष्ट वायु ने उस वाहन को आवर्त्त में डाल दिया । मानो दुष्ट मंत्री के पाप के भार से भारी हुआ हो - इस प्रकार से वह वाहन टूट गया। उस समय एक पाटिया हाथ में आ जाने से रत्नवती उसकी सहायता से किनारे पर पहुँच गयी । शील सर्व स्थानों पर प्राणियों की रक्षा करता है। उसने विचार किया - " उस शक्तिमान विधाता को मैं क्या - क्या भेंट दूं? कि जिसने कसाई के पास से बकरी की तरह उस दुष्ट मंत्री से मेरा रक्षण किया ।”
इस प्रकार विचार करती हुई और वन के फलादि खाकर आजीविका का निर्वाह करती हुई रत्नवती शुभकर्म की प्रेरणा से कुसुमपुर में आ गयी। उसने भी लोगों के मुख से प्रियमेलक तीर्थ का प्रभाव सुना । वह भी धनवती की तरह वहीं तप में तत्पर होकर रहने लगी। वह दुष्ट मंत्री भी उसी प्रकार पाटिये के सहारे से समुद्र को तैरकर फिरते-फिरते दैवयोग से मानो अपने पापफल का भुगतान करने के लिए उसी कुसुमपुर में आ गया। वहां वचन की चतुराई से राजा का मन जीतकर मंत्रीपद प्राप्त कर लिया । मनुष्यों को परिचय होने से ही प्रीति होती है ।
उधर जब पापी मंत्री ने सिंहलसिंह कुमार को समुद्र में धक्का दिया था, तब किसी ने उसे अदृश्य हाथों में तुरन्त ही ग्रहण कर लिया । उसे समुद्र से तिराकर किसी तापसाश्रम में छोड़ दिया। महाविपत्ति में पड़े हुए की रक्षा भी पुण्य ही करता है। वहां स्वस्थ होकर विश्रान्ति के लिए बैठे हुए कुमार ने मन में विचार किया - "अहो ! उस दुष्ट मंत्री ने कैसा विश्वासघात किया। अवश्य ही उस पापी का मन या तो मेरी प्रिया पर या तो धन पर लोभ के द्वारा व्याकुल बना होगा। इसी कारण से उसने मुझे समुद्र में गिराया है। जो लोभान्ध होता है, वह क्या-क्या कुकर्म नहीं करता? क्योंकि लोभ ही सर्व दुष्कृत रूपी लता का मूल है। अगर विचार किया जाय, तो इसमें मंत्री का कोई दोष नहीं है। मेरे पूर्व के पापकर्मों का ही दोष है । पूर्वकृत कर्म ही संपदा और विपदा प्रदान करने में समर्थ है। अरे! मेरे कर्म कितने प्रतिकूल है ? जिसने पहली स्त्री का वियोग देकर भी तृप्त नहीं हुआ । इसने दूसरी प्रिया का भी वियोग दे दिया। पर फिर भी मेरा पूर्व का कुछ परिपक्व पुण्य अब भी स्फुरायमान है, क्योंकि समुद्र में डूबते हुए मुझको किसी ने यहां पहुँचाया है। अतः यह निश्चित है कि पूर्वजन्म में मैंने खण्डित पुण्य किया