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292/श्री दान-प्रदीप
यह सुनकर दया रूपी पुण्य की बुद्धि से युक्त उस कुमार ने अपने पास रही हुई विष का हरण करनेवाली मणि के जल को कन्या के ऊपर छिड़का । तुरन्त ही उसके विष का समस्त आवेग शान्त हो गया। वह स्वस्थता को प्राप्त हुई और मानो नींद से उठी हो-इस प्रकार उठकर खड़ी हो गयी। जैसे चन्द्र को देखकर कुमुदिनी खिल उठती है, उसी प्रकार उस कुमार को देखकर वह कन्या उस पर प्रीतियुक्त बनी। उसके रूप को देखकर कन्या के नेत्र विकसित हो गये।
पुत्री को जीवित देखकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने हर्षामृत को बरसानेवाली वाणी के द्वारा उस कुमार से कहा-"जगत् में करुणा रूपी पुण्य करनेवाले पुरुषों के मध्य मैं तुमको अग्रसर मानता हूं, क्योंकि तुम्हारी समस्त कलाएँ परोपकार करने में कुशल है। जो पुरुष शक्तिमान होने पर भी अन्य की पीड़ा का हरण नहीं करता, उसे कुबुद्धियुक्त जानना चाहिए। वह पृथ्वी पर मात्र भारभूत ही है। ऐसे पुत्र को कभी किसी माता को जन्म ही नहीं देना चाहिए।
हे वत्स! तुम्हारे इस अद्भुत आचरण के द्वारा ही तुम्हारे कुल की उच्चता का निश्चय होता है, क्योंकि रत्न की उत्पत्ति रत्नाकर के बिना अन्य स्थल पर नहीं होती। फिर भी हे मित्र! तेरे वृत्तान्त रूपी मधुर दुग्ध को झरनेवाली वाणी के द्वारा हमारे कर्ण रूपी बछड़ों को तूं पारणा करा।"
तब कुमार ने संक्षेप में अपने पिता आदि का नाम बताया, क्योंकि सत्पुरुष जिस प्रकार पर की निन्दा करने में मन्द होते हैं, उसी प्रकार स्व की स्तुति करने में भी मन्द होते हैं।
फिर उसे सिंहलेश्वर राजा का पुत्र जानकर राजा और भी अधिक हर्षित हुआ। फिर राजा ने कुमार से कन्या के परिणय सम्बन्ध के लिए विज्ञप्ति की। कुलवान और कलावान जामाता किसे इष्ट न होगा? यह सुनकर प्रिया के वियोग से पीड़ित कुमार ने उस कन्या के साथ पाणिग्रहण करना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि उत्तम पुरुष अंगीकार की हुई प्रीति को विपत्ति में छोड़ते नहीं। राजा ने फिर से आग्रहपूर्वक कहा-"तुम जैसा सर्व गुणों से पूर्ण पुरुष पुत्री के पति के रूप में अगण्य पुण्यों से ही प्राप्त होता है। ऐसा होने पर भी अगर कदाचित् मैं इस कन्या को तुम्हारे साथ न परणाऊँ, तो मुझे प्रतिज्ञाभंग का पाप लगेगा। अतः अधिक क्या कहूं? यह कन्या भी तुम पर अनुरक्त हो गयी है। तुम्हारे उपकार के द्वारा यह खरीद ली गयी है। अतः अब अन्य किसी को यह पति के रूप में स्वीकार नहीं कर पायेगी। अतः अमृतपान के तुल्य इसके पाणिग्रहण के द्वारा चिन्ता रूपी अग्नि से जलते हुए हमारे चित्त को शीतल करो।"