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285 / श्री दान- प्रदीप
रूप पर स्त्रियों के नेत्रों रूपी भ्रमरों की श्रेणी निरन्तर विलास करती थी । उसकी बुद्धि जैसे-जैसे विशालता को प्राप्त हुई, वैसे-वैसे उसका वक्षस्थल भी विशालता को प्राप्त हुआ । उसके दोनों स्कन्ध स्थूलता को प्राप्त हुए और उसी के साथ उसकी कीर्ति भी स्थूलता को प्राप्त हुई। उसके दोनों नेत्र कर्ण के मूल में विश्रान्ति को प्राप्त हुए और गुरु (पिता) की वाणी भी वहीं विश्रान्ति को प्राप्त हुई । उसकी दोनों हथेलियाँ रक्तता को प्राप्त हुई और पुरजन उस पर अनुरक्त हुए। उसकी दोनों भुजाएँ पुष्टता को प्राप्त हुईं और इसी के साथ उसका माहात्म्य भी पुष्ट हुआ। जैसे-जैसे उसकी दाढ़ी-मूछ उत्पन्न हुए, वैसे-वैसे पराक्रम भी उत्पन्न हुआ । जैसे पद्म को भ्रमर घेर लेते हैं, वैसे ही सौभाग्य रूपी सुगन्ध के समूह से आकर्षित समान रूप और वयवाले अनेक कुमार उसके मित्र बन गये और हर्षपूर्वक उसे घेरे रहते ।
एक बार वसन्त ऋतु में कुमार परिवार सहित इन्द्रपुत्र जयन्त की तरह उद्यान में क्रीड़ा करने के लिए गया । वन के मध्य में रहा हुआ राजपुत्र ऐसे शोभित हो रहा था, मानो उद्यान में उतरे हुए वसन्त से मिलने के लिए स्वयं कामदेव आया हो । नेत्र रूपी मृगों के जाल के समान वनलक्ष्मी को वह देख रहा था। तभी उसने सुदूर लता - मण्डप के भीतर से आते हुए दीन शब्दों को सुना। वह धैर्यशाली कुमार तुरन्त उन शब्दों का अनुसरण करते हुए समीप पहुँचा, क्योंकि महापुरुष अन्यों के प्राणों का रक्षण करने में तत्पर बुद्धियुक्त होते हैं। कुमार जब वहां पहुँचा, तो उसने देखा कि एक कन्या किंकर्त्तव्यमूढ़ होकर किस दिशा में जाऊँ?' - इस प्रकार के विचार से व्याकुल होकर इधर-उधर दौड़ रही है। उसके पीछे सूंड ऊपर करके यमराज के समान भयानक व मदोन्मत्त हाथी उसका हनन करने की इच्छा से दौड़ रहा था ।
वह कन्या उच्च स्वर में विलाप कर रही थी - "हे माता ! तूं कहां है? हे पिता ! कहां हो? हे कुलदेवी! तूं कहां चली गयी? ऐसे दुःख के समय में आप सभी मुझसे दूर क्यों हो गये? हे वनदेवी! किसी शूर-शिरोमणि को तूं खोजकर ला, जो किसी बंधु या संबंधी की तरह इस विकट संकट से मेरी रक्षा कर सके । हे जगत के चक्षु सूर्य! मेरी रक्षा करो। मेरी रक्षा करो। यह वन का हाथी मुझे यमराज के घर पर पहुँचा देगा। इससे मुझे बचाओ, क्योंकि तुम्ही जगत की साक्षी रूप हो।"
इस प्रकार करुण स्वर में विलाप करते हुए वह वन के प्राणियों को भी रुला रही थी । उसके नेत्र झरते हुए अश्रुओं से व्याप्त थे | त्रास को प्राप्त मृगी के समान सर्व दिशाओं में दृष्टि डालती हुई उस कन्या को देखकर दयालू राजकुमार ने विचार किया - "अहो ! इसकी यह दयनीय अवस्था कैसे हुई ? अन्य प्राणियों की विपत्ति देखकर जिनका चित्त दयार्द्र नहीं होता, माता की युवावस्था का नाश करनेवाले ऐसे पुत्र को माता जन्म ही न दे। हर किसी को विपत्ति